________________
पिण्डनियुक्ति : एक पर्यवेक्षण
* सेसं पिण्डनिज्जुत्तिअणुसारेण भाणियव्वं (निचू भा. ४ पृ. १९१)। * पिण्डनिज्जुत्तिगाहासुत्ते जहा तहा सवित्थरं भाणियव्वं (निचू भा. ४ पृ. १९३)।
जीतकल्पभाष्य में भिक्षाचर्या के दोषों का वर्णन ५८६१ गाथाओं में है। भाष्यकार ने प्रायश्चित्त सम्बन्धी अथवा कहीं-कहीं सम्बन्ध बिठाने के लिए नई गाथाओं का भी निर्माण किया है। कहीं-कहीं विस्तार का संक्षेप भी किया है, जैसे साधर्मिक की व्याख्या पिंडनियुक्ति में २२ गाथाओं में विस्तार से है लेकिन जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने संक्षेप में इसका वर्णन किया है। जीतकल्पभाष्य की गाथाओं को देखकर यह संभावना की जा सकती है कि भाष्यकार ने कुछ परिवर्तन के साथ इस पूरे प्रसंग को अपने ग्रंथ का अंग बना लिया है।
पिण्डविशुद्धिप्रकरण साधु की भिक्षाचर्या एवं उसके दोषों पर लिखा गया एक लघु ग्रंथ है। इसके रचयिता नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभसूरि ने पिण्डनियुक्ति के आधार पर इस ग्रंथ की रचना की है। ग्रंथ के अंत में शार्दूलविक्रीड़ित छंद में १०३ वी गाथा में वे स्वयं उल्लेख करते हैं
इच्चेयं जिणवल्लहेण गणिणा, जं पिंडनिज्जुत्तिओ। किंची पिंडविहाणजाणणकए, भव्वाण सव्वाण वि॥ वुत्तं सुत्तनिउत्तमुद्धमइणा, भत्तीइ सत्तीइ तं।
सव्वं भव्वममच्छरा सुयहरा, बोहिंतु सोहिंतु य॥ ग्रंथकर्ता ने भिक्षाचर्या के बारे में संक्षिप्त किन्तु सारयुक्त प्रस्तुति दी है लेकिन कहीं-कहीं अपनी मौलिक प्रतिभा का उपयोग भी किया है, जैसे आधाकर्म के द्वार एवं उनकी व्याख्या। इस ग्रंथ की यह विशेषता है कि ग्रंथकर्ता ने संक्षेप में हर दोष की परिभाषा प्रस्तुत कर दी है। ग्रंथ का महत्त्व इस बात से जाना जा सकता है कि इस पर छह टीकाएं तथा एक अवचूरि लिखी गई है।
टीकाकार यशोदेव सूरि ने पिण्डनियुक्ति में उल्लिखित प्रायः सभी कथाओं का विस्तार किया है। उन्होंने प्रायः कथाओं को प्राकृत भाषा में प्रस्तुत किया है। कुछ कथाएं प्राकृत पद्य में भी हैं। संभव लगता है कि विस्तार से लिखी प्राकृत पद्यबद्ध ये कथाएं टीकाकार ने किसी अन्य ग्रंथ से उद्धृत की हैं।
आगमेतर साहित्य, जिसमें भिक्षाचर्या एवं उसके दोषों का विवेचन है, वह प्रायः साहित्य पिण्डनियुक्ति के बाद का है। उनको देखने से यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि भिक्षाचर्या से सम्बन्धित प्रायः सभी परवर्ती ग्रंथ पिण्डनियुक्ति से प्रभावित हैं। इनमें आचार्य हरिभद्रकृत अष्टकप्रकरण (पांचवां, छठा, सातवां अष्टक), पंचाशक प्रकरण (तेरहवां पंचाशक), पंचवस्तु (गा. ७३९-६८), विंशति विंशिका (तेरहवीं एवं चौदहवीं विंशिका) आचार्य नेमिचन्द्र कृत प्रवचनसारोद्धार एवं उसकी टीका, मूलाचार एवं अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथ रत्न प्रमुख हैं।
१. जीभा १०८८-१६७४।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org