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पिंडनियुक्ति
प्रत्येकबुद्ध के नाम से संकल्प किया गया है तो वह आहार साधु के लिए कल्प्य है क्योंकि तीर्थंकर और प्रत्येकबुद्ध संघ से अतीत होते हैं, वे सब कल्पों से ऊपर उठ गए हैं अतः वे साधुओं के साधर्मिक नहीं होते ।
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• यदि कोई गृहस्थ दीक्षित पिता के दिवंगत होने पर या जीवित अवस्था में उनकी लेप्यमयी प्रतिमा बनवाकर उनके लिए नैवेद्य तैयार करवाता है तो वह भी दो प्रकार का होता है- १. निश्राकृत २. अनिश्राकृत । यदि गृहस्थ यह संकल्प करता है कि रजोहरणधारी मेरे पिता की प्रतिकृति को मैं नैवेद्य दूंगा तो वह निश्राकृत नैवेद्य कहलाता है । यदि बिना संकल्प के सामान्य रूप से तैयार करता है तो वह अनिश्राकृत कहलाता है । निश्राकृत नैवेद्य आधाकर्मी होने से अकल्प्य होता है तथा अनिश्राकृत कल्प्य होने पर भी लोकविरुद्ध होने से निषिद्ध है। इसी प्रकार तत्काल दिवंगत साधु के शरीर के सामने रखने के लिए जो आहार तैयार किया जाता है, वह मृततनुभक्त कहलाता है। वह भी निश्राकृत और अनिश्राकृत दो प्रकार का होता है। उनमें प्रथम अकल्प्य तथा दूसरा कल्प्य होते हुए भी प्रतिषिद्ध है ।
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क्षेत्र की दृष्टि से कोई यह संकल्प करे कि मैं सौराष्ट्र देश में उत्पन्न सभी साधुओं को भिक्षा दूंगा तो सौराष्ट्र देश में उत्पन्न साधु के लिए वह आहार अकल्प्य है, शेष के लिए कल्प्य । इसी प्रकार काल, प्रवचन, लिंग, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, अभिग्रह और भावना आदि साधर्मिक के बारे में भी नियुक्तिकार और टीकाकार ने विस्तार से वर्णन किया है।
आधाकर्म क्या है ?
आधाकर्म विषयक चौथा द्वार है--आधाकर्म क्या होता है ? इसकी व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि आधाकर्म उत्पत्ति के घटक तत्त्व अशन, पान, खादिम और स्वादिम- ये चार होते हैं। पिण्डनियुक्तिकार ने केवल आहार से सम्बन्धित आधाकर्म का ही विस्तार से वर्णन किया है लेकिन प्रश्नव्याकरण सूत्र में उल्लेख मिलता है कि वसति - उपाश्रय आदि का सम्मार्जन, शोधन, छादन, पुताई, लिपाई आदि भी यदि साधु के लिए होती है तो वह आधाकर्मिक है, उसका प्रयोग असंयम का कारण है।" स्वपक्ष और परपक्ष
पांचवें द्वार में नियुक्तिकार ने साधु और गृहस्थ के साथ कृत और निष्ठित के आधार पर आधाकर्म
१. पिनि ७३ / ४, ५, मवृ प. ५३, ५४ ।
२. मवृ प. ५४
३. मवृ प. ५५ ; लिंग की दृष्टि से कुछ आचार्य मानते हैं कि एकादश प्रतिमाधारी श्रावक साधु जैसे ही होते हैं अतः उनके लिए कृत आहार साधु के लिए कल्प्य नहीं होता लेकिन टीकाकार मलयगिरि ने इस मत का खंडन किया
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है तथा मूल टीकाकार का उद्धरण देते हुए कहा है कि लिंग युक्त एकादश प्रतिमाधारी श्रावक लिंग से साधर्मिक हैं, अभिग्रह से नहीं अतः उनके लिए कृत आहार साधु के लिए कल्प्य होता है ।
४. देखें पिनि ७३/८-२२, मवृ प. ५५-६२ । ५. प्र ८/९ ।
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