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पिंडनियुक्ति
५७/१. ज्योतिष-सूर्य-चन्द्र आदि, तृण, औषधि-शालि आदि धान, मेघ, ऋण, कर-राजदेय द्रव्य-ये द्रव्य विषयक उद्गम हैं। इन द्रव्यों का जिससे, जब और जैसे उद्गम होता है, वैसा कहना चाहिए। ५७/२-४. वासगृह से निकलकर राजकुमार आस्थान मंडप में क्रीड़ामग्न हो गया। भोजन के समय माता ने लड्ड पसंद करने वाले कुमार को घट और शरावों में भरकर मोदक भेजे। कुमार ने यथेष्ट मोदक खाए। आस्थान मंडप में बैठे रह जाने के कारण उसके अजीर्ण रोग हो गया, दुर्गन्ध युक्त अधोवायु निकलने लगी। कुमार ने तब आहार के उद्गम का चिन्तन किया-'मोदक त्रिसमुत्थ'-घृत, गुड़ और आटा से उद्भूत हैं। इनका उद्गम शुचि द्रव्यों से है। यह शरीर दो प्रकार के मलों-माता के रज एवं पिता के वीर्य से उद्भूत है। राजकुमार को वैराग्य हुआ। उससे उसको युगपद् सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र का उद्गम हुआ, तत्पश्चात् केवलज्ञान का उद्गम हुआ। ५७/५. दर्शन और ज्ञान से चारित्र का उद्गम होता है। इन दोनों की शुद्धि से चारित्र शुद्ध होता है। चारित्र से कर्मशुद्धि होती है। निष्कर्ष की भाषा में उद्गम की शुद्धि होने पर ही चारित्र की शुद्धि होती है। ५८, ५९. उद्गम के सोलह दोष हैं१. आधाकर्म
९. अपमित्य अथवा प्रामित्य २. औद्देशिक
१०. परिवर्तित ३. पूतिकर्म
११. अभिहत ४. मिश्रजात
१२. उद्भिन्न ५. स्थापना
१३. मालापहृत ६. प्राभृतिका
१४. आच्छेद्य ७. प्रादुष्करण १५. अनिसृष्ट ८. क्रीत
१६. अध्यवपूरक ६०. आधाकर्म के नाम, एकार्थक, वह किसके लिए किया जाता है, उसका स्वरूप क्या है-यह विचार करना चाहिए। परपक्ष-गृहस्थ वर्ग के लिए किया हुआ आहार आधाकर्म नहीं होता। स्वपक्ष-साधु आदि के लिए किया हुआ आहार आधाकर्म होता है। आधाकर्म में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार आदि चार, उसके ग्रहण में आज्ञाभंग आदि दोष-ये नौ द्वार हैं।
१. ज्योतिष् तथा मेघों का आकाश से, तृण, शालि आदि का पृथ्वी से, ऋण का व्यापार से, करों का नृपति नियुक्त पुरुषों से
उद्गम होता है। समय के अनुसार ज्योतिश्चक्र के बीच सूर्य का प्रभात में तथा शेष चन्द्र आदि का अन्यान्य समयों में, तृणों का प्रायः श्रावण आदि मास में तथा ज्योतिष् चक्र और मेघों का आकाश में देर रात्रि तक विस्तृत होने से, तृण, शालि आदि का भूमि को फोड़कर ऊपर आने से, ऋण का ब्याज आदि से एवं करों का प्रतिवर्ष संकलन करने से उदगम होता है (मवृ प. ३३)। २. कथानक के विस्तार हेतु देखें परि : ३ कथा सं. ३। ३. यह मूलद्वारगाथा है। इसकी व्याख्या आगे ९२ (२१७) वीं गाथा तक चलती है।
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