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अनुवाद
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७३/१८. चारित्र से साधर्मिक अभिग्रह से नहीं, इस प्रथम भंग में समान चारित्री एवं विभिन्न अभिग्रह वाले साधु आते हैं। अभिग्रह से साधर्मिक चारित्र से नहीं--इस द्वितीय भंग में समान अभिग्रहधारी निह्नव, श्रावक और विभिन्न चारित्र वाले साधु आते हैं। (यहां श्रावक और निह्नव के लिए कृत आहार कल्पनीय है।) इसी प्रकार चारित्र और भावना की चतुर्भंगी को समझना चाहिए। अब मैं अभिग्रह और भावना से संबंधित चतुर्भंगी को कहूंगा। ७३/१९. अभिग्रह से साधर्मिक भावना से नहीं तथा भावना से साधर्मिक अभिग्रह से नहीं-इन दो भंगों में साधु, श्रावक और निह्नवों का समावेश होता है। सामान्य केवलज्ञानी के निमित्त बना हुआ आहार आदि अन्य साधुओं को नहीं कल्पता। तीर्थंकर और प्रत्येकबुद्ध के लिए बना हुआ आहार आदि अन्य साधुओं को कल्पता है। ७३/२०. इसी प्रकार लिंग के साथ दर्शन आदि की चतुर्भंगी होती है। ऊपर के तीन भंगों में भजना है लेकिन अंतिम भंग का वर्जन करना चाहिए। ७३/२१. प्रत्येकबुद्ध, निह्नव, उपासक, केवली और शेष साधु आदि के साथ क्षायिक आदि भावों के अनुसार (दर्शन, ज्ञान, चारित्र, अभिग्रह और भावना के आधार पर) विकल्पों की योजना करनी चाहिए। ७३/२२. जहां तीसरा भंग-प्रवचन से साधर्मिक तथा लिंग से साधर्मिक, वहां साधु को आहार नहीं कल्पता। (इस विकल्प में प्रत्येकबुद्ध और तीर्थंकरों को छोड़कर शेष मुनि आ जाते हैं।) शेष भंगत्रय में भजना है-क्वचित् कल्पता है, क्वचित् नहीं। तीर्थंकर और केवली के निमित्त बनाया हुआ आहार आदि कल्पता है। शेष साधुओं के लिए किया हुआ अन्न-पानी आदि नहीं कल्पता। ७४. शिष्य के द्वारा पूछने पर कि आधाकर्म क्या है ? आचार्य उसका स्वरूप बताने हेतु आधाकर्म उत्पत्ति के घटक अशन-पान आदि का कथन करते हैं। ७५. अशन-शालि आदि, पान-अवट (कूप आदि ) से निकला पानी, खादिम-फल आदि और स्वादिम-सूंठ आदि है। इनमें कृत और निष्ठित के आधार पर शुद्ध और अशुद्ध चार भंग होते हैं।
टीकाकार ने अंतिम दो भंगों की व्याख्या भी की है (देखें मवृ प. ६१)। २. देवता तीर्थंकर के लिए समवसरण आदि की रचना करते हैं, उसमें साधु धर्म-देशना सुनने के लिए जाते हैं। इसी प्रकार
तीर्थंकर के लिए बना भक्त आदि भी साधु के लिए कल्पनीय है। तीर्थंकर और प्रत्येकबुद्ध सभी कल्पों से ऊपर उठ गए हैं, संभवत: इसीलिए यह विधान किया गया है। (मवृ प.६१) बृभा के अनुसार तीर्थंकर किसी के साधर्मिक नहीं होते
अतः उनके लिए कृत आहार मुनि के लिए कल्प्य है (बृभा १७८२, टी पृ. ५२६)।। ३, ४. गाथा में तीर्थंकर और केवली-इन दो शब्दों का प्रयोग क्यों किया गया, इसका स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार कहते
हैं कि तीर्थंकर को केवलज्ञान उत्पन्न होने पर सबको ज्ञात हो जाता है लेकिन केवली का कैवल्य सबको ज्ञात हो, यह आवश्यक नहीं है इसलिए तीर्थंकर और केवली दोनों को अलग-अलग ग्रहण किया है। तीर्थंकर' शब्द के ग्रहण से उपलक्षण से प्रत्येकबुद्ध का ग्रहण भी हो जाता है। (मवृ प.६२) जीतकल्पभाष्य में निह्नव और उपासक शब्द का
प्रयोग हुआ है (जीभा ११४५)। ५. ६. कृत और निष्ठित की चतुर्भगी के लिए देखें गा.८०, ८०/१ का अनुवाद।
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