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पिंडनियुक्ति
उत्सर्पण रूप बादर प्राभृतिका है। इस अवष्वष्कण और उत्ष्वष्कण रूप बादर प्राभृतिका को कोई ऋजु व्यक्ति प्रकट कर देता है और कुटिल व्यक्ति प्रच्छन्न रूप से रखता है। १३५/१. दो कारणों से विवाह आदि के दिनों का अवष्वष्कण होता है-मंगल के प्रयोजन से तथा पुण्य के प्रयोजन से। इसी प्रकार उत्ष्वष्कण भी दो कारणों से होता है। कारण पूछने पर यदि गृहस्थ यथार्थ बात बताए तो मुनि उस विवाह आदि में बने आहार का वर्जन करता है। १३६. जो मुनि प्राभृतिका भक्त का उपभोग करके उस स्थान (दोष) का प्रतिक्रमण नहीं करता, वह मुंड वैसे ही व्यर्थ परिभ्रमण करता है जैसे लुंचित-विलुंचित पंख वाला कपोत । १३६/१-६. एक श्राविका ने लुंचित शिर वाले साधु को देखा। उसका शरीर तप से कृश और मैल से कलुषित था। वह युगमात्र दृष्टि से भूमि को देखता हुआ अत्वरित और अचपल गति से चल रहा था। उस मुनि को अपने घर में भिक्षा के लिए आते हुए देखकर वह श्राविका संवेगयुक्त हो गई। वह विपुलमात्रा में अन्न-पान लेकर आई। इस घर का द्वार नीचा है अतः एषणा शुद्ध नहीं होगी, यह सोचकर मुनि वहां से आगे बढ़ गया।
मुनि के बिना भिक्षा लिए चले जाने पर वह श्राविका उदासीन और लज्जित हो गई और अन्न-पान लेकर वहीं बैठ गई। इतने में ही एक दूसरा मुनि, जो चरण-करण के पालन में शिथिल था, वहां आया और उसने वह भिक्षा ग्रहण कर ली। तब उस श्राविका ने पूछा-'भगवन् ! अभी एक मुनि आए थे। उन्होंने भिक्षा लेने का निषेध कर दिया और आपने भिक्षा ग्रहण कर ली, इसका क्या कारण है ?' मुनि ने ऐहलौकिक और पारलौकिक लाभ बताकर भिक्षा छोड़ने का कारण बताया-'जो मुनि एषणा समिति से समित होते हैं, वे नीचे द्वार वाले घरों से भिक्षा नहीं लेते क्योंकि (अंधकार के कारण) वहां एषणा की विशुद्धि नहीं हो सकती।' (वे मुनि एषणा समित थे इसलिए भिक्षा ग्रहण किए बिना ही चले गए।) तुम मुझे पूछती हो कि मुझे वह आहार कैसे कल्पता है तो सुनो-'मैं केवल लिंगोपजीवी हूं, केवल साधु वेशधारी हूं, गुणयुक्त साधु नहीं हूं।' मुनि ने उस श्राविका को मुनि के गुणों तथा एषणा के बारे में बताया। साधु की सरलता से प्रभावित होकर श्राविका ने भक्तिपूर्वक मुनि को विपुल अन्न-पान दिया। उस मुनि के चले जाने पर एक दूसरा मुनि आया। श्राविका के पूछने पर उसने कहा-'ऐसे मुनि मायावी होते हैं, मायापूर्ण आचरण करते हैं। हमने भी पहले व्रतों का मायापूर्ण आचरण किया था।' १३७, १३८. प्रादुष्करण के दो प्रकार हैं-प्रकटकरण और प्रकाशकरण। प्रकटकरण का अर्थ है
१. उत्तरार्ध को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं- ऋजु व्यक्ति के द्वारा प्रकट की गई यथार्थ बात को जन-परम्परा से
जानकर मुनि उस आहार को ग्रहण न करे।खोज करने पर भी यदि साधु न जान पाए तो उसे ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है क्योंकि साधु के परिणाम शुद्ध हैं (मवृ प. ९३)। २. टीकाकार ने इहलोक और परलोक को स्पष्ट करते हुए कहा है कि भिक्षा की प्राप्ति ऐहलौकिक लाभ है लेकिन धर्म और
नियम का पालन पारलौकिक लाभ है, जो अधिक गुण वाला है (मत् प. ९४)।
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