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अनुवाद
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२१४/३. आगंतुक अथवा धातुक्षोभज रोग के समुत्पन्न होने पर मुनि जो क्रिया करता है, वह यह हैपहले पेट का संशोधन करता है फिर पित्त आदि का उपशमन करता है फिर रोग के कारण का परिहार करता है। (यह तीसरे प्रकार की चिकित्सा है।) २१५. चिकित्सा-क्रिया में असंयम योगों का सतत प्रवर्तन होता है क्योंकि गृहस्थ तप्त लोहे के गोले के समान होता है। (वह यावज्जीवन षड्जीवनिकाय के घात में प्रवर्तित होता है अत: उसकी चिकित्सा सतत असंयमयोगों का कारण बनती है)। इस प्रकरण में दुर्बल व्याघ्र का दृष्टान्त जानना चाहिए। यदि चिकित्सा करने पर भी रोग अत्युग्र हो जाता है तो गृहस्थ उसका निग्रह करता है, जिससे प्रवचन की निंदा होती है। २१६. क्रोधपिंड दृष्टान्त का नगर हस्तकल्प, मानपिंड दृष्टान्त का नगर गिरिपुष्पित, मायापिंड दृष्टान्त का नगर राजगृह तथा लोभपिंड दृष्टान्त का नगर चंपानगरी है। घेवर, सेवई, मोदक तथा केशरिया मोदक-ये चारों वस्तुएं क्रमशः क्रोध आदि की उत्पत्ति के कारण हैं। २१७. जो भोजन मुनि की विद्या और तप के प्रभाव से, राजकुल की प्रियता से अथवा शारीरिक बल के प्रभाव से प्राप्त होता है, वह क्रोधपिंड है। २१८. दूसरों को दान देते हुए देखकर अथवा स्वयं याचना करते हुए दान प्राप्त न होने पर साधु के कुपित होने पर गृहस्थ यह सोचकर दान देता है कि मुनि का कुपित होना शुभ नहीं होता, वह क्रोधपिंड है। अथवा क्रोध का फल मरण आदि शाप देना होता है, इस चिन्तन से जो दिया जाता है, वह भी क्रोधपिंड है। २१८/१. मृतकभक्त में आहार न मिलने पर मुनि कुपित होकर यह कहकर आगे चला गया कि दूसरे महीने में दान देना। (दूसरे महीने और तीसरे महीने भी उस घर में किसी की मृत्यु होने पर मृतकभोज हुआ।) तीसरी बार स्थविर द्वारपाल ने गृहस्वामी को सारी बात कही। उसने क्षमा मांगकर मुनि को दान दिया। (यह क्रोधपिण्ड का उदाहरण है)। २१९. जो मुनि दूसरे के द्वारा उत्साहित किए जाने पर अथवा लब्धि और प्रशंसा वचनों को सुनकर गर्वित बनकर अथवा दूसरे के द्वारा अपमानित होकर पिंड की एषणा करता है, वह मानपिंड है। २१९/१, २. सेवई बनाने के उत्सव में साधुओं के समूह में यह स्वर उभरा कि आज प्रात:काल कौन साधु सेवई लाएगा? एक क्षुल्लक मुनि बोला-'मैं लाऊंगा।' मुनियों ने कहा-'बिना गुड़ और घी के अपर्याप्त मात्रा में प्राप्त सेवई से हमारा प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा।''जैसी तुम चाहोगे, वैसी सेवई लाऊंगा'यह कहकर मुनि भिक्षार्थ बाहर निकल गया। २१९/३. भिक्षा मांगने पर गृहस्वामिनी ने मुनि को अपमानित करके सेवई देने का प्रतिषेध कर दिया।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २९। २. मूलाचार (गा. ४५४) में मान, माया और लोभ से सम्बन्धित नगरों के नामों में अंतर है। मान से सम्बन्धित वेन्नातट, माया
से सम्बन्धित वाराणसी तथा लोभ से सम्बन्धित राशियान नगर का उल्लेख है। मूलाचार में खाद्यपदार्थों के नाम का निर्देश नहीं है। ३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३. कथा सं. ३०।
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