Book Title: Agam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 373
________________ अनुवाद प्रतिदिन किया जाता है तो वह निकाम तथा जिस आहार से घी आदि टपकता हो, वह प्रणीत आहार है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। ३१२/२. अतिबहुक, अतिबहुशः तथा अतिप्रमाण में किया हुआ भोजन अतिसार पैदा कर सकता है, उससे वमन हो सकता है तथा वह आहार जीर्ण न होने पर व्यक्ति मार सकता है। २०१ ३१२/३. प्रमाण से बहुत अधिक भोजन करना अतिबहुक होता है तथा तीन बार से अधिक बार भोजन करना अतिबहुशः कहलाता है। तीन बार से अधिक बार अधिक मात्रा में भोजन करना अथवा अतृप्त होकर खाते जाना अतिप्रमाण आहार कहलाता है। ३१३. जो मुनि हितकारी, परिमित तथा अल्प- आहार करते हैं, उनकी चिकित्सा वैद्य नहीं करते। वे स्वयं ही चिकित्सक होते हैं (अर्थात् उनके रोग होता ही नहीं ।) ३१३/१. तैल और दही का तथा दूध, दही और कांजी का समायोग विरुद्ध है, अहितकर है। अविरुद्ध द्रव्यों का समायोग पथ्य होता है, रोग का अपनयन करता है तथा भावी रोग का हेतु नहीं बनता । ३१३/२. उदर के छह भाग करके, आधे उदर अर्थात् तीन भागों को व्यंजन सहित आहार के लिए, दो भाग पानी के लिए तथा छठा भाग वायु के संचरण के लिए खाली रखे।" ३१३/३, ४. काल तीन प्रकार का जानना चाहिए - शीत, उष्ण और साधारण । साधारण काल की आहारमात्रा यह है- अति शीतकाल में पानी का एक भाग तथा आहार के चार भाग, मध्यम शीतकाल में दो भाग पानी तथा तीन भाग आहार, उष्ण काल में दो भाग पानी तथा तीन भाग आहार, अति उष्णकाल में तीन भाग पानी तथा दो भाग आहार - यह प्रमाण है । सर्वत्र छठा भाग वायु- संचरण के लिए है। ३१३/५. पानी का एक भाग तथा भोजन के दो भाग अवस्थित हैं, ये घटते-बढ़ते नहीं हैं। एक-एक में शेष दो-दो भाग बढ़ते हैं, घटते हैं, जैसे- अतिशीतकाल में भोजन के दो भाग बढ़ जाते हैं तथा अति उष्णकाल में पानी के दो भाग बढ़ जाते हैं। अतिउष्णकाल में भोजन के दो भाग कम हो जाते हैं तथा अतिशीतकाल में पानी के दो भाग कम हो जाते हैं। ३१३/६. आहार विषयक तीसरा और चौथा - ये दोनों भाग अनवस्थित हैं। पानक विषयक पांचवां भाग, १. हितकर आहार दो प्रकार का होता है - द्रव्यतः तथा भावतः । अविरुद्ध आहार करना द्रव्यतः हितकर है तथा एषणीय आहार करना भावतः हितकर है (मवृ प. १७४) । २. प्रमाणोपेत आहार मित आहार है। ३. बत्तीस कवल प्रमाण आहार से कम आहार क़रना अल्पाहार है। ४. शाक, खट्टे फल, खली, कैथ का फल, करीर, दधि और मत्स्य- इन चीजों को दूध के साथ खाना विरुद्ध है (मवृ प. १७४) । ५. मूलाचार ४९१ के अनुसार उदर को चार भागों में विभक्त करके आधा भाग भोजन के लिए अर्थात् दो भाग भोजन के लिए, तीसरा भाग पानी के लिए तथा चौथा भाग वायु-संचरण के लिए खाली रखना चाहिए। आयुर्वेद की काश्यप संहिता के खिलस्थान में भी यही उल्लेख मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492