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अनुवाद
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३१९. अथवा मुनि छह कारणों से आहार का परित्याग कर दे। सभी कार्य कर लेने पर मुनि अपनी अंतिम अवस्था में (संलेखना में अपने आपको क्षीण कर) अनशन करने योग्य स्वयं को बनाकर भोजन का परिहार कर दे। ३२०. आहार-परित्याग के छह कारण ये हैं-१. आतंक-रोग-निवारण हेतु ,२. उपसर्ग-तितिक्षा-- उपसर्ग-सहन करने के लिए, ३. बह्मचर्य की गुप्तियों के परिपालन के लिए, ४. प्राणिदया के लिए, ५. तपस्या के निमित्त तथा ६. शरीर के व्यवच्छेद के लिए। ३२०/१, २. ज्वर आदि आतंक में, राजा तथा स्वजन आदि द्वारा उपसर्ग किए जाने पर, ब्रह्मचर्य का पालन करने हेतु, वर्षा तथा ओस आदि में प्राणियों के प्रति दया करने के लिए, उपवास से लेकर षाण्मासिक तप के लिए तथा शरीर के व्यवच्छेद-परित्याग हेतु मुनि अनाहार रहे। ३२१. इन छह कारणों से जो भिक्षु आहार का परित्याग करता है, वह धर्मध्यान में रत रहता हुआ उसका अतिक्रमण नहीं करता। ३२२. उद्गम के १६ दोष, उत्पादना के १६ दोष, एषणा के १० दोष तथा ग्रासैषणा के संयोजना आदि ५ दोष-ये एषणा के ४७ दोष होते हैं। ३२३. यह आहारविधि सर्वदर्शी तीर्थंकरों ने जिस प्रकार प्रतिपादित की है, उसी प्रकार से मैंने अपनी मति से उसकी व्याख्या की है। मुनि इसका पालन इस प्रकार से करे, जिससे धर्म तथा आवश्यक (प्रतिक्रमण आदि) योगों की हानि न हो। ३२४. जो मुनि यतनाशील है, सूत्रोक्तविधि के परिपालन में पूर्णतया सजग है, अध्यात्म-विशोधि से युक्त है, उसके यदि कोई विराधना (अपवाद-सेवन से होने वाली स्खलना) होती है तो वह भी निर्जराफल वाली होती है।
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