Book Title: Agam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 424
________________ २५२ पिंडनियुक्ति ३०. क्रोधपिण्ड : क्षपक दृष्टांत __ हस्तकल्प नगर में किसी ब्राह्मण के घर में मृतभोज था। उस भोज में एक मासखमण की तपस्या वाला साधु पारणे के लिए भिक्षार्थ पहुंचा। उसने ब्राह्मणों को घेवर का दान देते हुए देखा। उस तपस्वी साधु को द्वारपाल ने रोक दिया। साधु कुपित होकर बोला-'आज नहीं दोगे तो कोई बात नहीं, अगले महीने तुम्हें मुझको देना होगा।' ऐसा कहते हुए वह घर से निकल गया। दैवयोग से उस घर का अन्य कोई व्यक्ति पांच-छह दिन के बाद दिवंगत हो गया। उसके मृतभोज वाले दिन वही साधु मासखमण के पारणे हेतु वहां पहुंचा। उस दिन भी द्वारपाल ने उसको रोक दिया। वह मुनि कुपित होकर पुनः बोला-'आज नहीं तो फिर कभी देना होगा।' मुनि की यह बात सुनकर स्थविर द्वारपाल ने चिन्तन किया कि पहले भी इस साधु ने दो बार इसी प्रकार श्राप दिया था। घर के दो व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो गए। इस बार तीसरा अवसर है। अब घर का कोई व्यक्ति न मरे अतः उसने गृहनायक को सारी बात बताई। गृहनायक ने आदरपूर्वक साधु से क्षमायाचना की तथा घेवर आदि वस्तुओं की भिक्षा दी। (यह क्रोधपिण्ड है)। ३१. श्वेताङ्गलि किसी गांव में कोई पुरुष अपनी भार्या की इच्छा के अधीन था। वह प्रात:काल ही भूख के कारण अपनी पत्नी से भोजन की याचना करता था। वह उसको कहती थी कि मैं आलस्य के कारण इतनी जल्दी उठने में समर्थ नहीं हूं अतः तुम स्वयं चूल्हे से राख निकालकर पड़ोसी के घर से अग्नि लाकर चूल्हा जलाओ और भोजन पकाओ। जब वह पक जाए, तब मैं आपको परोसकर खाना खिलाऊंगी। पत्नी के कहे अनुसार प्रतिदिन वह यह कार्य करता था। प्रात:काल ही चूल्हे से राख निकालने के कारण उसका मुख राख से श्वेत हो जाता था अतः लोगों ने विनोद में उसका नाम श्वेताङ्गलि रख दिया। ३२. बकोड्डायक किसी ग्राम में कोई पुरुष अपनी पत्नी के मुखदर्शन के सुख में आसक्त था अतः वह उसके प्रत्येक आदेश का वशवर्ती था। एक बार उसकी पत्नी ने कहा-'आज मुझे आलस्य सता रहा है अतः तुम स्वयं तड़ाग पर जाकर पानी लेकर आ जाओ।' वह पत्नी के कथन को देवता के आदेश की भांति स्वीकार करता हुआ बोला-'प्रिये ! तुम जो आदेश दोगी, मैं वही कार्य करूंगा। लोग मुझे पानी लाते हुए नहीं देखें इसलिए मैं रात्रि के पश्चिम प्रहर में उठकर प्रतिदिन पानी लाऊंगा।' गमनागमन करने से उसके पैरों की आवाज तथा घड़ा भरने की आवाज को सुनकर तड़ाग के किनारे उगे हुए वृक्षों पर सोते हुए बक उड़ने लगते थे। यह वृत्तान्त लोगों को विदित हो गया। विनोद में लोगों ने उसका नाम बकोड्डायक रख दिया। १. गा. २१८/१, वृ प. १३४, निभा ४४४२, जीभा १३९५, चू प. ४१८, पिंप्रटी प. ५८। २. गा. २१९/६, वृ प. १३५, निभा ४४५१, चू पृ. ४२०, पिंप्रटी प.५९। ३. गा. २१९/६, वृ प. १३५, निभा ४४५१, चू पृ. ४२०, पिंप्रटी प.५९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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