Book Title: Agam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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परिशिष्ट-६
एकार्थक जिन शब्दों का एक ही अभिधेय हो, वे एकार्थक कहलाते हैं। इनके लिए 'अभिवचन'२ 'निरुक्ति पर्याय और 'निर्वचन" आदि शब्दों का उल्लेख भी मिलता है। किसी भी विषय की व्याख्या में एकार्थक शब्दों के प्रयोग का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। बृहत्कल्पभाष्य में एकार्थकों का प्रयोजन इस प्रकार बतलाया गया है
बंधाणुलोमया खलु, सुत्तम्मि य लाघवं असम्मोहो।
सत्थगुणदीवणा वि य, एगट्ठगुणा हवंतेए । छंद की व्यवस्थापना, सूत्र का लाघव, असम्मोह तथा शास्त्रीय गुणों का दीपन-ये एकार्थक के गुण हैं। इसके अतिरिक्त एकार्थवाची शब्दों के प्रयोग से विद्यार्थी का भाषा एवं कोशविषयक ज्ञान सुदृढ़ होता है। विभिन्न भाषाभाषी शिष्यों के अनुग्रह के लिए भी ग्रंथकार एकार्थकों का प्रयोग करते हैं, जिससे प्रत्येक देश का विद्यार्थी उस शब्द का अर्थ सुगमता से ग्रहण कर सके। किसी भी बात का प्रकर्ष एवं महत्त्व स्थापित करने के लिए भी एकार्थक शब्दों का प्रयोग होता है। भाव-प्रकर्ष हेतु प्रसंगवश एकार्थकों का प्रयोग पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता । नियुक्तिकार का यह भाषागत वैशिष्ट्य है कि वे सूत्र के मूल शब्द के एकार्थक लिखकर फिर उसकी व्याख्या करते हैं । पिंडनियुक्ति में भी प्रसंगवश ग्रंथकार ने कुछ शब्दों के एकार्थकों का उल्लेख किया है, यहां उनका उल्लेख किया जा रहा है
(मवृ प. ३६)
आधा-आधार आधा आश्रय आधार इत्यनर्थान्तरम्। आहाकम्म-आधाकर्म आहा अहे य कम्मे, आयाहम्मे य अत्तकम्मे य।
पडिसेवण पडिसुणणा, संवासऽणुमोदणा चेव॥ उग्गम-उद्गम उग्गम उग्गोवण मग्गणा य एगट्ठियाणि एताई।
(गा.६१) (गा. ५६)
१. स्थाटी पृ. ४७२। २. भ. २०/१४। ३,४: आवहाटी १ पृ. २४२ । ५. बृभा १७३।
(क) जंबूटी प. ३३ ; नानादेशविनेयानुग्रहार्थं एकार्थिकाः।
(ख) नंदीटी पृ. ५८ ; विनेयजनसुखप्रतिपत्तए....... । ७. भगटी. प. १४ ; समानार्था : प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय स्तुतिमुखेन ग्रंथकृतोक्ताः ।
मवृ प. ३६; एतानि च नामान्याधाकर्मणो मुख्यानि पुन र्यैः प्रतिषेवणादिभिः प्रकारैस्तदाधाकर्म भवति, तान्यप्यभेदविवक्षया नामत्वेन प्रतिपादयति-आधाकर्म, अध:कर्म, आत्मघ्न और आत्मकर्म-ये आधाकर्म के मुख्य नाम हैं। यहां प्रतिसेवणा आदि को अभेद विवक्षा से एकार्थक माना है।
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