Book Title: Agam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 454
________________ २८२ पिंडनियुक्ति एसणा-एषणा गण्ड-स्तन घट-घड़ा छति-त्यक्त • तेप-देता है . दुद्ध-दूध पातन-विनाश पिंड-समूह एसण गवसणा मग्गणा य उग्गोवणा य बोधव्वा। एते उ एसणाए, नामा एगट्ठिया होंति॥ गण्डावपि स्तनापरपर्यायौ। घट-कलश-कुम्भादीनाम्। छर्दितमुज्झितं त्यक्तमिति पर्यायाः । तेपते क्षरति ददाति स्मेति भावार्थः । दुद्ध पओ पीलु खीरं च। पातनं चातिपातो विनाश इत्यर्थ :। पिंड-निकाय-समूहे, संपिंडण पिंडणा य समवाए। समुसरण-निचय-उवचय, चए य जुम्मे य रासी य॥ 'भोई' इति भोग्या-भार्या इत्यर्थः। स्थाम बलं प्राण इत्येकोऽर्थः । (गा. ५१) (मवृ प १२३) (मवृ प ५०) (मवृ प १६९) (मवृ प ९४) (गा. ७०/२) (मवृ प ३७) भोइ-पत्नी स्थाम-बल (गा. २) (मवृ प १११) (मवृ प १७७) १. मवृ प. २९; एषणादीनि चत्वारि नामानि प्रागेकार्थिकान्युक्तानि, तथाऽपि तेषां कथञ्चिदर्थभेदोऽप्यस्ति। २. मटी प. २ ; यद्यपि पिण्डादयः शब्दा: लोके प्रतिनियत एव संघातविशेषे रूढाः ; तथाऽपि सामान्यतो यद् व्युत्पत्तिनिमित्तं सङ्घातत्वमात्रलक्षणं तत् सर्वेषामप्यविशिष्टमिति कृत्वा सामान्यतः सर्वे पिण्डादयः शब्दा एकार्थिका उक्ताः, ततो न कश्चिद्दोषः-यद्यपि पिंड, निकाय आदि शब्द प्रतिनियत समूह के लिए रूढ़ हैं, फिर भी सामान्य रूप से एकार्थक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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