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परिशिष्ट-७
निरुक्त
निरुक्त का अर्थ है-शब्दों की व्युत्पत्ति करके उसके अर्थ को स्पष्ट करना। इस दृष्टि से यास्क का निरुक्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। जैन आगमों में भगवती और सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी शब्दों के निरुक्त मिलते हैं। इससे प्रतीत होता है कि यह व्याख्या की एक संक्षिप्त प्राचीन पद्धति थी। निरुक्त द्वारा शब्द के मूल अर्थ और प्रकृति को जानने में सहायता मिलती है।
सम्पूर्ण नियुक्ति साहित्य में अनेक निरुक्तों का प्रयोग हुआ है, जैसे काम का निरुक्त–'उक्कामयंति जीवं धम्माओ तेण ते कामा' इसी प्रकार आवश्यकनियुक्ति में 'मिच्छामि दुक्कडं' शब्द का कल्पनामूलक सुंदर निरुक्त किया गया है। ऐसे निरुक्त हमें अन्य साहित्य में देखने को नहीं मिलते । यद्यपि इसमें व्याकरण के नियमों का ध्यान नहीं रखा गया है लेकिन निरुक्त और अर्थ की दृष्टि से यह एक सुंदर उदाहरण हैमिच्छामिदुक्कडं
मि त्ति मिउमद्दवत्ते, छ त्ति य दोसाण छायणे होति। मि त्ति य मेराय ठिओ, दु त्ति दुगुंछामि अप्पाणं॥ क त्ति कडं मे पावं, ड त्ति य डेवेमि तं उवसमेणं ।
एसो मिच्छादुक्कडपयक्खरत्थो समासेणं॥ (आवनि ४३६/२१, २२) ___ इसमें प्रत्येक अक्षर की व्युत्पत्ति की गई है, किसी की शब्दों द्वारा तथा किसी की धातुओं द्वारा। इस प्रकार के और भी अनेक महत्त्वपूर्ण निरुक्त हमें नियुक्ति-साहित्य में मिलते हैं। यहां केवल पिंड नियुक्ति एवं उसकी टीका में आए निरुक्तों का उल्लेख किया गया है। यद्यपि पिंडनियुक्ति निरुक्तों की दृष्टि से समृद्ध नहीं है, फिर भी कुछ महत्त्वपूर्ण निरुक्त मिलते हैंआत्मकर्म-परकर्म आत्मकर्म क्रियते इत्यात्मकर्म।
(मवृ प. ५०) आत्मज-• प्राणादींश्च घ्नन् नियमत: चरणादिरूपमात्मानं हन्ति, 'पाणिवहे वयभंगो' इत्यादिवचनात्तत आधाकर्म आत्मघ्नमित्युच्यते।
(मवृ प.५२) • आत्मानं दुर्गतिप्रपातकारणतया हन्ति विनाशयतीत्यात्मघ्नम्। (मवृ प. ३६) आधा-आधीयतेऽस्यामित्याधा।
(मवृ प. ३६) उद्भिन्न-उद्भेदनमुद्भिन्नम्।
(मवृ प. ३५) उद्देश-उद्देशनमुद्देशः।
(मवृ प. ३५) उपकरण-उपक्रियते अनेनेत्युपकरणम्।
(मवृ प. ८४) ज्वलन-ज्वलतीति ज्वलनः ।
(मवृ प. ५) तपन-तपतीति तपनः।
(मवृ प. ५)
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