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परिशिष्ट-९
सूक्त-सुभाषित
सूक्ति का शाब्दिक अर्थ है-सुष्ठु-कथन । जिस उक्ति में अनुभूति और अभिव्यक्ति का चमत्कार होता है, वह सूक्ति कहलाती है। जो भीतरी चेतना के परिवर्तन के लिए स्पंदन पैदा कर देते हैं, वे सुभाषित कहलाते हैं। सूक्ति में जीवनभर का अनुभव थोड़े से शब्दों में उड़ेल दिया जाता है। इससे भाषा-शैली में गतिशीलता और सौष्ठव आ जाता है।
पिण्डनियुक्ति में प्रयुक्त सूक्तियां और सुभाषित केवल उपदेशात्मक ही नहीं, बल्कि जीवनस्पर्शी और प्रेरणास्पद भी हैं।
नियुक्ति साहित्य का अध्यनन करने से प्रतीत होता है कि नियुक्तिकार ने कहीं भी प्रयत्न नहीं किया बल्कि सहज रूप से विषय का निरूपण करते हुए वे गाथाएं या चरण सूक्त रूप में अवतरित हो गए, जैसे-भावे य असंजमो सत्थं-भाव दृष्टि से असंयम सबसे बड़ा शस्त्र हैं। यहां द्रव्य और भावशस्त्र के निरूपण में इतना चरण अहिंसा की दृष्टि से एक बहुत बड़ा तथ्य हमारे सामने प्रस्तुत कर देता है।
सूक्ति व सुभाषित के प्रयोग से गंभीरतम तथ्य बहुत सरल और सहज भाषा में प्रकट हुआ है।
यहां पिण्डनियुक्ति एवं उसकी टीका के सूक्ति एवं सुभाषित संकलित हैं• असुभभावो वज्जेयव्वो पयत्तेणं।
(गा. ६७/४) • साताबहुलपरंपर, वोच्छेदो संजम-तवाणं।
(गा. ८३/२) • जो जहवायं न कणति. मिच्छद्रिी तओ ह को अन्नो?
(गा. ८३/३) • जो उ असझं साहति, किलिस्सति न तं च साहेती।
(गा. ११६/४) • दाणं न होति अफलं, पत्तमपत्तेसु सण्णिजुज्जंतं।
(गा. २१३) • दूइत्तं खु गरहितं।
(गा. २०१/२) • सुत्तस्स अप्पमाणे, चरणाभावो तओ तु मोक्खस्स। मोक्खस्स वि य अभावे, दिक्खपवित्ती निरत्था उ॥
(गा. २४०) • हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा। न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा।
(गा. ३१३) • रागग्गिसंपलित्तो, भुंजंतो फासुगं पि आहारं। निद्दड्डिंगालनिभं, करेति चरणिंधणं खिप्पं ॥
(गा. ३१४/२) • न खल्वकामी मण्डनप्रियो भवतीति।
(मवृ प. ११) • विनयबलादेव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रवृद्धिसम्भवात् ।
(मवृ प. १५) • विद्वत्ता हि सा तत्त्ववेदिनां प्रशंसाऱ्या या यथावस्थितं वस्तु विविच्य हेयोपादेयहानोपादानप्रवृत्तिफला।
(मवृ प. ३४) • ज्ञानदर्शनयोर्हि फलं चरणप्रतिपत्तिरूपा सन्मार्गप्रवृत्तिः ।
(मवृ प. ४२) • आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे जाण किं न भग्गं ति?
(मवृ प. ४३) • नापीह भवेऽकृतं शुभं कर्म परलोके फलति ।
(मवृ प.७७) • यो दुःखसहायो भवति, तस्मै दुःखं निवेद्यते।
(मवृ प. १२२)
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