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परि. ४ : आयुर्वेद एवं आरोग्य
२६९ धात्री के स्वर का बालक पर प्रभाव
___ क्रीडनधात्री ढड्डरस्वरा, ततस्तस्याः स्वरमाकर्णयन् बालो छुन्नमुख:-क्लीबमुखो भवति, अथवा मृदुगीरेषा ततोऽनया रम्यमाणो बालो मृदुगीर्भवति।।
__(मवृ प. १२५) यदि क्रीड़नधात्री उच्चस्वर वाली होती है तो उसके स्वर को सुनकर बालक क्लीबमुख वाला हो जाता है। जिस धात्री की वाणी मधुर होती है, उस क्रीड़नधात्री के साथ खेलता हुआ बालक मृदु वाणी वाला हो जाता है। धात्री के शरीर का बालक पर प्रभाव
थुल्लाएँ विगडपादो, भग्गकडी सुक्कडी य दुक्खं च।
निम्मंसकक्खडकरेहि, भीरुओ होति घेप्पंतो॥ इह स्थूलया मांसलया धात्र्या कट्यां ध्रियमाणो बालः विकटपादः परस्परबह्वन्तरालपादो भवति, भग्नकट्या शुष्ककट्या वा कट्यां ध्रियमाणो दु:खं तिष्ठति, निर्मीसकर्कशकराभ्यां च ध्रियमाणो बालो भीरुर्भवति।
(गा. १९८/१५,मवृ प. १२५) स्थूल एवं मांसल अंकधात्री के पास रहता हुआ बालक विकट पाद अर्थात् दोनों पैरों के बीच बहुत अंतराल वाला हो जाता है। भग्नकटि या पतली कमर वाली की गोद में बालक दुःखपूर्वक स्थित रहता है। मांस रहित एवं कर्कश हाथों वाली अंकधात्री के पास बालक भीरु हो जाता है। उपवास-चिकित्सा सहसुप्पन्नं व रुयं वारेमो अट्ठमादीहिं ।
(गा. २१४/२) सहसा उत्पन्न रोग की चिकित्सा तेले आदि के द्वारा की जाती है। धातु क्षुब्ध होने पर चिकित्सा
संसोधण-संसमणं, निदाणपरिवज्जणं च जं जत्थ।
__ आगंतु धातुखोभे, व आमए कुणति किरियं तु॥ धातुक्षोभजे चाऽऽमये-रोगे समुत्पन्ने सति तत्र यत्क्रियां करोति, तद्यथा-संशोधनं हरीतक्यादिदानेन पित्ताद्युपशमनम्।
(गा. २१४/३, मवृप. १३३) धातु क्षुब्ध होने पर उत्पन्न रोग में संशोधन आदि क्रिया की जाती है। उसमें हरीतकी आदि के द्वारा पित्त-शमन किया जाता है। संक्रामक रोग
तद्दोसी संकमणं गलंत भिस-भिन्नदेहे य। भृशम्-अतिशयेन गलदर्द्धपक्वं रुधिरं च बहिर्वहन् भिन्नश्च स्फुटितो देहो यस्य स तथा तस्मिन् दातरि सङ्क्रमणं कुष्ठव्याधिसङ्क्रान्तिः स्यात्।
(गा. २७६ मवृ प. १६०)
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