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परि. ४ : आयुर्वेद एवं आरोग्य
प्रमाणातिरिक्त आहार का परिणाम
अतिबहुयं अतिबहुसो, अतिप्पमाणेण भोयणं भुत्तं । हादेज्ज व वामिज्ज व, मारेज्ज व तं अजीरंतं ॥
(गा. ३१२/२)
अतिबहुक, अधिक बार और अति प्रमाण में किया गया भोजन अतिसार पैदा कर सकता है, उससे वमन हो सकता है तथा वह आहार जीर्ण न होने पर व्यक्ति को मार सकता है। चिकित्सक कौन ?
हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा ।
न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा ॥
द्रव्यतोऽविरुद्धानि द्रव्याणि, भावत एषणीयं तदाहारयन्ति ये ते हिताहाराः, मितं प्रमाणोपेतमाहारयन्तीति मिताहाराः, द्वात्रिंशत्कवलप्रमाणादप्यल्पमल्पतरं वाऽऽहारयन्तीत्यल्पाहाराः, एवंविधा ये नरास्तान् वैद्या न चिकित्सन्ति, हितमितादिभोजनेन तेषां रोगस्यैवासम्भवात् । (गा. ३१३ मवृ प. १७४ ) द्रव्य से अविरुद्ध और भावतः एषणीय आहार करने वाले हिताहारी कहलाते हैं। मित और प्रमाणोपेत आहार करने वाले मिताहारी तथा बत्तीस कवल प्रमाण से भी अल्प आहार करने वाले अल्पाहारी होते हैं। ऐसे व्यक्तियों की वैद्य चिकित्सा नहीं करते क्योंकि हित-मित और अल्प आहार करने से उनके रोग उत्पन्न ही नहीं होता ।
प्रतिकूल आहार
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खीर- दधि-कंजियाणं च ।
दहि- तेल्लसमा ओगा, अहितो पत्थं पुण रोगहरं, न य
हेतू होति रोगस्स ॥
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दधितैलयोस्तथा क्षीरदधिकाञ्जिकानां च यः समायोगः सोऽहितः विरुद्ध इत्यर्थः, तथा चोक्तम्-‘“शाकाम्लफलपिण्याककपित्थलवणैः सह । करीरदधिमत्स्यैश्च प्रायः क्षीरं विरुध्यते ॥१ ॥ ' इत्यादि अविरुद्धद्रव्यमीलनं पुनः पथ्यं तच्च रोगहरं प्रादुर्भूतरोगविनाशकरं न च भाविनो रोगस्य हेतुः कारणम्, उक्तं च - " अहिताशनसम्पर्कात्, सर्वरोगोद्भवो यतः । तस्मात्तदहितं त्याज्यं, न्याय्यं पथ्यनिषेवणम् ॥१ ॥” ( गा. ३१३ / १ मवृ प. १७४ )
दधि और तैल का तथा दूध, दही और काञ्जी का समायोग अर्थात् एक साथ खाना अहितकर है, यह विरुद्ध आहार है। शाक, खट्टे फल, पिण्याक, कपित्थ-कैथ, लवण, करीर, दही और मत्स्य के साथ दूध पीना विरुद्ध आहार है । अविरुद्ध द्रव्य को साथ मिलाकर लेना पथ्य है। वह प्रादुर्भूत रोग का नाश करने वाला तथा भविष्य में रोग न होने का कारण बनता है। कहा भी गया है कि अहितकर अशन खाने से रोगों का उद्भव हो जाता है अतः अहितकर भोजन छोड़कर पथ्य भोजन करना चाहिए ।
आहार का परिमाण
अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भागे ।
वातपवियारणा
छब्भागं
ऊणगं कुज्जा ॥
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