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पिंडनियुक्ति इह किल सर्वमुदरं षड्भिर्भागैर्विभज्यते, तत्र चार्ट्स भागत्रयरूपमशनस्य सव्यञ्जनस्य-तक्र शाकादिसहितस्याधारं कुर्यात् तथा द्वौ भागौ द्रवस्य पानीयस्य, षष्ठं तु भागं वायुप्रविचारणार्थमूनं कुर्यात्।
(गा. ३१३/२ मवृप. १७५) उदर को छह भागों में विभक्त करके उसका आधा अर्थात् तीन भाग आहार के लिए दो भाग पानी के लिए तथा छठा भाग वायु-संचार के लिए खाली रखना चाहिए।
सीते दवस्स एगो, भत्ते चत्तारि अहव दो पाणे।
उसिणे दवस्स दोन्नी, तिन्नि उ सेसा व भत्तस्स॥ शीते अतिशयेन शीतकाले द्रवस्य पानीयस्यैको भागः कल्पनीयः, चत्वारः भक्ते भक्तस्य, मध्यमे तु शीतकाले द्वौ भागौ पानीयस्य कल्पनीयौ, त्रयस्तु भागा भक्तस्य तथा उष्णे मध्यमोष्णकाले द्वौ भागौ द्रवस्य पानीयस्य कल्पनीयौ, शेषास्तु त्रयो भागा भक्तस्य अत्युष्णे च काले त्रयो भागा द्रवस्य शेषौ द्वौ भागौ भक्तस्य, सर्वत्र च षष्ठो भागो वायुप्रविचारपार्थं मुत्कलो मोक्तव्यः ।
(गा. ३१३/४, मवृप. १७५) __ अत्यधिक शीतकाल में पानी का एक भाग, आहार के चार भाग, मध्यम शीतकाल में दो भाग पानी के तथा तीन भाग आहार के, मध्यम उष्ण काल में दो भाग पानी के शेष तीन भाग आहार के, अत्यन्त उष्ण काल में तीन भाग पानी के तथा शेष दो भाग आहार के, हर मौसम में छठा भाग सदैव वायु-संचार के लिए खाली रखना चाहिए।
एगो दवस्स भागो, अवदितो भोयणस्स दो भागा।
वखंति व हायंति व, दो दो भागा तु एक्केक्के॥ _एको द्रवस्य भागोऽवस्थितो द्वौ भागौ भोजनस्य, शेषौ तौ द्वौ द्वौ भागौ एकैकस्मिन्, भक्ते पाने चेत्यर्थः, वर्द्धते वा हीयेते वा, वृद्धिं वा व्रजतो हानि वा व्रजत इत्यर्थः, तथाहि-अतिशीतकाले द्वौ भागौ भोजनस्य वर्द्धते अत्युष्णकाले च पानीयस्य, अत्युष्णकाले च द्वौ भागौ भोजनस्य हीयेते अतिशीतकाले च पानीयस्य।
(गा. ३१३/५ मवृ प. १७५) उदर के छह भागों में दो भाग भोजन के लिए अवस्थित हैं, शेष दो भाग बढ़ते-घटते रहते हैं। अतिशीतकाल में दो भाग भोजन के बढ़ जाते हैं, पानी के घट जाते हैं तथा अति उष्णकाल में दो भाग पानी के बढ़ जाते हैं और भोजन के घट जाते हैं।
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