Book Title: Agam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 430
________________ २५८ पिंडनियुक्ति यह सब अभिनय प्रस्तुत किया गया। अंत में नाटक से संतुष्ट राजा ने तथा सभी लोगों ने यथाशक्ति हार, कुंडल आदि आभरण तथा प्रभूत मात्रा में वस्त्र आदि फेंके। सब लोगों को धर्मलाभ देकर आषाढ़भूति ५०० राजकुमारों के साथ राजकुल से बाहर जाने लगा। राजा ने उसको रोका। उसने उत्तर दिया-'क्या भरतचक्रवर्ती प्रव्रज्या लेकर वापिस संसार में लौटा था, वह नहीं लौटा तो मैं भी नहीं लौटूंगा।' सपरिवार आषाढ़भूति गुरु के समीप गया। वस्त्र-आभरण आदि सब अपनी दोनों पत्नियों को दे दिए और पुनः दीक्षा ग्रहण कर ली। वही नाटक विश्वकर्मा ने कुसुमपुर नगर में भी प्रस्तुत किया। वहां भी ५०० क्षत्रिय प्रव्रजित हो गए। लोगों ने सोचा-इस प्रकार क्षत्रियों द्वारा प्रव्रज्या लेने पर यह पृथ्वी क्षत्रिय रहित हो जाएगी अतः उन्होंने नाटक की पुस्तक को अग्नि में जला दिया। (यह मायापिंड का उदाहरण है)। ३९. लोभपिण्ड : सिंहकेशरक मोदक-दृष्टांत चम्पा नामक नगरी में सुव्रत नामक साधु प्रवास कर रहा था। एक बार वहां मोदकोत्सव का आयोजन हुआ। उस दिन सुव्रत मुनि ने सोचा कि मुझे आज किसी भी प्रकार सिंहकेशरक मोदक प्राप्त करने हैं। लोगों के प्रतिषेध करने पर भी वह दो प्रहर तक घूमता रहा। मोदक की प्राप्ति न होने पर उसका चित्त विक्षिप्त हो गया। अब वह हर घर के द्वार में प्रवेश करके धर्मलाभ' के स्थान पर सिंहकेशरक मोदक कहने लगा। पूरे दिन और रात्रि के दो प्रहर बीतने पर भी वह मोदक के लिए घूमता रहा। आधी रात्रि में उसने एक श्रावक के घर प्रवेश किया। 'धर्मलाभ' के स्थान पर उसने सिंहकेशरक शब्द का उच्चारण किया। वह श्रावक बहुत गीतार्थ और दक्ष था। उसने सोचा-निश्चय ही इस मुनि ने कहीं भी सिंहकेशरक मोदक प्राप्त नहीं किए इसलिए इसका चित्त विक्षिप्त हो गया है। मुनि की चैतसिक स्थिरता हेतु श्रावक बर्तन भरकर सिंहकेशरक मोदक लेकर आया और निवेदन किया-'मुने! इन मोदकों को आप ग्रहण करो।' मुनि सुव्रत ने उनको ग्रहण कर लिया। मोदक ग्रहण करते ही उसका चित्त स्वस्थ हो गया। श्रावक ने पूछा-'आज मैंने पूर्वार्द्ध का प्रत्याख्यान किया था, वह पूर्ण हुआ या नहीं?' मुनि सुव्रत ने काल-ज्ञान हेतु उपयोग लगाया। मुनि ने आकाश-मण्डल को तारागण से परिमण्डित देखा। उसको चैतसिक भ्रम का ज्ञान हो गया। मुनि ने पश्चात्ताप करना प्रारंभ कर दिया-'हा! मूढ़तावश मैंने गलत आचरण कर लिया। लोभ से अभिभूत मेरा जीवन व्यर्थ है।' श्रावक को संबोधित करते हुए मुनि ने कहा-'तुमने पूर्वार्द्ध प्रत्याख्यान की बात कहकर मुझे संसार में डूबने से बचा लिया। तुम्हारी प्रेरणा मेरे लिए संबोध देने वाली रही।' आत्मा की निंदा करते हुए उसने विधिपूर्वक मोदकों का परिष्ठापन किया तथा ध्यानानल से क्षणमात्र में घाति-कर्मों का नाश कर दिया। आत्मचिंतन से मुनि को कैवल्य की प्राप्ति हो गई। १. गा. २१९/९-१५, वृ प. १३७-१३९, जीभा १३९८-१४१०, पिंप्रटी प.६०-६३, निभा एवं उसकी चूर्णि में केवल क्रोधपिण्ड और मानपिण्ड से संबंधित कथाएं हैं। निशीथसूत्र में मायापिण्ड और लोभपिण्ड से संबंधित सूत्र का उल्लेख है . लेकिन उसकी व्याख्या एवं कथा नहीं है। यह अन्वेषण का विषय है कि ऐसा कैसे हुआ? इस संदर्भ में यह संभावना की जा सकती है कि संपादित निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में वह प्रसंग छूट गया हो अथवा ग्रंथकार ने उसे सरल समझकर छोड़ दिया हो। २. गा. २२०/१,२ वृ प. १३९, जीभा १४१४-१७, पिंप्रटी प. ६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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