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परि. ३ : कथाएं
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लेकिन वहां से वापस निकलते हुए श्वापदों के पदचिह्न नहीं थे। तब यूथ को बुलाकर वानर-यूथपति ने कहा–'कोई भी इस हृद में प्रवेश करके पानी न पीए। तट पर स्थित नाले से ही पानी पीए, यह हृद उपद्रव रहित नहीं है।' यहां मृग आदि के प्रवेश करते हुए के पदचिह्न दिखाई देते हैं लेकिन निकलते हुए के दिखाई नहीं देते। जिन वानरों ने उसके वचन का पालन किया, वे सुखपूर्वक विहार करते रहे। जिन्होंने यूथपति के वचनों का पालन नहीं किया, वे समाप्त हो गए। ४८. बालदायक : बालिका-दृष्टांत
किसी अभिनव श्राविका ने अपनी पुत्री को कहा-'श्रमणों को भिक्षा दे देना।' श्राविका अपने खेत में चली गई। श्राविका के जाने पर कोई साधु भिक्षार्थ उसके यहां आया। बालिका ने साधु को तण्डुलोदक दिए। सिंघाड़े के प्रमुख उस साधु ने बालिका को सरल जानकर आसक्ति वश बार-बार कहा-'थोड़ा और दो।' बालिका ने सारा ओदन दे दिया। इसी प्रकार मूंग, घी, छाछ, दही आदि भी सारा भिक्षा में ग्रहण कर लिया। अपराह्न के समय उसकी मां आई। जब वह भोजन के लिए बैठी तो उसने अपनी पुत्री से ओदन आदि आहार मांगा। बालिका ने कहा-'सारा ओदन साधु को दे दिया।' श्राविका ने कहा-'तुमने अच्छा कार्य किया। मुझे मूंग परोस दो।' बालिका ने कहा-'मैंने सारे मूंग भी साधु को दे दिए।' श्राविका ने जिस किसी चीज की मांग की, बालिका ने एक ही उत्तर दिया कि साधु को दे दिए। अंत में उसने कांजी की मांग की। उसके लिए भी बालिका ने कहा-'वह भी साधु को दे दिया।'
वह अभिनव श्राविका बालिका पर कुपित होकर बोली-'तूने साधु को सारा आहार क्यों दिया?' बालिका ने उत्तर दिया-'साधु ने बार-बार मांग की अतः मैंने उनको सब कुछ दे दिया।' श्राविका क्रोधावेश में आकर आचार्य के पास गई। उन्हें सारा वृत्तान्त बताते हुए उसने कहा-'आपका अमुक साधु मेरी पुत्री से मांग-मांगकर सारा आहार लेकर आ गया है।' उसके उच्च शब्दों को सुनकर पड़ोसी लोगों को भी यह बात ज्ञात हो गई। वे भी क्रोध में आकर साधु का अवर्णवाद करने लगे। प्रवचन की निंदा न हो इसलिए आचार्य ने सब लोगों के समक्ष साधु के सारे उपकरण ग्रहण करके उसे वसति से बाहर निकाल दिया। उसको उपाश्रय से बाहर निकालने पर श्राविका का क्रोध शान्त हो गया। उसने आचार्य को निवेदन किया-'मेरे कारण इस साधु को वसति से बाहर न निकालें। इसके एक अपराध को क्षमा करें।' साधु को अनेक प्रकार से शिक्षा देकर आचार्य ने उसे पुनः संघ में सम्मिलित कर लिया। ४९. छर्दित दोष : मधु-बिन्दु-दृष्टांत
वारत्तपुर नामक नगर में अभयसेन नामक राजा था। उसके मंत्री का नाम वारत्रक था। एक बार एषणा समिति से धीरे-धीरे चलते हुए धर्मघोष नामक संयमी साधु भिक्षार्थ किसी घर में प्रविष्ट हुआ। मंत्री की पत्नी ने साधु को भिक्षा देने के लिए घृत शर्करा युक्त पायस के पात्र को उलटा। शर्करा मिश्रित एक घृत
३. पिण्डविशुद्धिप्रकरण में यह कथा विस्तृत रूप में दी गई है।
१. गा. २३६/१-३, वृ प. १४६, पिंप्रटी प. ७६ । २. गा. २७२ वृ प. १५८,१५९।
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