________________
परि. ३ : कथाएं
२४३
मन में बहुत प्रसन्न हुई । आदरपूर्वक वंदना, भक्ति और पर्युपासना करके वह उनके निमित्त आहार बनाने के लिए उपस्थित हुई । साधु ने उसको रोकते हुए कहा - ' हमारे निमित्त बनाया हुआ आहार अकल्पनीय है । '
गरीबी के कारण भिक्षा-वेला में उसको कहीं भी तैल की प्राप्ति नहीं हुई। आखिर किसी भी प्रकार शिवदेव नामक वणिक् की दुकान से वह दो पलिका तैल प्रतिदिन दुगुने ब्याज की वृद्धि के आधार पर उधार लेकर आई। भाई मुनि को वह वृत्तान्त ज्ञात नहीं था अतः उन्होंने शुद्ध समझकर उसे ग्रहण कर लिया । उस दिन भ्राता साधु से प्रवचन सुनने में व्यस्त रहने के कारण वह पानी आदि लाकर दो पलिका तैल का ब्याज नहीं उतार सकी। दूसरे दिन भाई का विहार होने से उसके वियोग में वह उस तैल के ब्याज की पूर्ति नहीं कर सकी। तीसरे दिन उसका ऋण दो कर्ष हो गया । अत्यधिक ऋण होने के कारण वह उसकी पूर्ति करने में समर्थ नहीं हो सकी। भोजन लिए उसने पूरे दिन श्रम किया लेकिन ऋण को चुकाना संभव नहीं हो सका । दुगुने वृद्धि के क्रम से ऋण अपरिमित हो गया। तब श्रेष्ठी ने सम्मति से कहा - ' या तो तुम मेरा तैल दो अन्यथा मेरा दासत्व स्वीकार करो।' तैल देने में असमर्थ उसने सेठ का दासत्व स्वीकार कर लिया।
कुछ वर्ष बीतने पर सम्मत नामक साधु पुनः उसी गांव में विहार करते हुए पहुंचा। उसने अपनी बहिन को घर पर नहीं देखा । बहिन के आने पर उसने घर छोड़ने का कारण पूछा। बहिन ने पुराना सारा घटनाक्रम बताकर शिवदेव वणिक् के यहां दासत्व की बात बताई और दुःख के कारण रोने लगी । साधु ने कहा-'तुम रुदन मत करो, मैं शीघ्र ही तुमको दासत्व से मुक्त करवा दूंगा।' बहिन का दासत्व से मुक्ति का उपाय सोचते हुए वह सर्वप्रथम शिवदेव सेठ के घर में पहुंचा। उसकी पत्नी शिवा भिक्षा देने के लिए जल से हाथ धोने के लिए उद्यत हुई। साधु ने हाथ धोने के लिए उसको निवारित करते हुए कहा - 'हाथ धोने से हमको भिक्षा नहीं कल्पती।' पास में बैठे सेठ ने कहा-' इसमें क्या दोष है ?' तब साधु ने हाथ धोने से होने वाली षट्काय- विराधना की बात विस्तार से कही । साधु की बात सुनकर उसने आदरपूर्वक पूछा - " भगवन्! आपकी वसति कहां है? मैं आपके पास आकर धर्म सुनूंगा।" साधु ने कहा - ' अभी तक मेरा कोई उपाश्रय निश्चित नहीं हुआ है।' तब सेठ ने अपने घर के एक कोने में साधु को रहने के लिए स्थान दे दिया ।
सेठ साधु से प्रतिदिन धर्म सुनता था । सेठ ने सम्यक्त्व एवं अणुव्रत स्वीकार कर लिए। साधु ने एक दिन वासुदेव आदि पूर्वज पुरुषों द्वारा आचीर्ण अभिग्रहों का वर्णन किया। साधु ने बताया कि वासुदेव कृष्ण ने यह अभिग्रह स्वीकार किया था कि यदि मेरा कोई पुत्र भी प्रव्रज्या ग्रहण करेगा उसमें बाधक नहीं बनूंगा। इस बात को सुनकर शिवदेव ने भी अभिग्रह ग्रहण कर लिया- 'यदि मेरे घर का कोई सदस्य दीक्षा ग्रहण करेगा तो मैं उसको नहीं रोकूंगा।' कुछ समय पश्चात् शिवदेव का ज्येष्ठ पुत्र तथा साधु की भगिनी सम्मति दीक्षा के लिए तैयार हो गए। सेठ ने दोनों को दीक्षा की अनुमति दे दी और उन्होंने प्रव्रज्या स्वीकृत कर ली ।
१. गा. १४४ / १-३ वृ प. ९८, ९९, पिंप्रटी प. ४१ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org