Book Title: Agam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 417
________________ परि. ३ : कथाएं २४५ की प्राप्ति होगी। कुछ साधु दूर हैं, कुछ पास हैं लेकिन बीच में नदी है। वे अप्काय की विराधना के भय से यहां नहीं आएंगे। आ भी जाएंगे तो प्रचुर मोदकों को देखकर उन्हें आधाकर्म की शंका हो जाएगी अतः वे इनको ग्रहण नहीं करेंगे। इसलिए जहां गांव में साधु रहते हैं, वहीं प्रच्छन्न रूप से मोदक ले जाएंगे। उन्होंने वैसा ही किया । वहां जाने पर पुनः उन्होंने चिन्तन किया कि यदि साधु को बुलाकर दूंगा तो वे अशुद्ध की आशंका से ग्रहण नहीं करेंगे अतः कुछ मोदक ब्राह्मण आदि को भी देना चाहिए। यदि साधु ब्राह्मण आदि को देते हुए नहीं देखेंगे तो उनको अशुद्ध की आशंका हो जाएगी। साधु जिस मार्ग से पंचमी समिति (उच्चार आदि हेतु) जाते हैं, उस मार्ग में देने से साधु उसे देखेंगे। इस प्रकार चिन्तन करके उन्होंने किसी देवकुल के बहिर्भाग में द्विज आदि को थोड़े-थोड़े मोदक देने प्रारंभ कर दिए। उच्चार आदि के लिए निकले साधुओं ने उन्हें ब्राह्मणों को दान देते देखा । श्रावकों ने उनको निमंत्रित करते हुए कहा- 'हमारे यहां प्रचुर मात्रा में मोदक बच गए हैं, आप इन्हें ग्रहण करें।' साधुओं ने शुद्ध जानकर लड्डु ग्रहण कर लिए। उन साधुओं ने शेष साधुओं को भी कहा कि अमुक स्थान पर प्रचुर एषणीय मोदक आदि उपलब्ध हैं । तब वे भी उसे ग्रहण करने हेतु वहां गए । कुछ श्रावकों ने उन्हें प्रचुर मात्रा में मोदक आदि दिए । कुछ ने मायापूर्वक उन्हें रोकते हुए कहा-' इनको इतने ही मोदक दो, अधिक नहीं। शेष हमारे भोजन के लिए चाहिए ।' कुछ श्रावक पुनः उन्हें रोकते हुए कहने लगे-'हम सब लोगों ने खा लिए अतः कोई भी नहीं खाएगा। साधु को यथेच्छ मात्रा में दो, शेष थोड़ा बचने से भी कार्य हो जाएगा।' जिन साधुओं को नवकारसी का प्रत्याख्यान था, उन्होंने मोदक खा लिए। जिनके पोरिसी थी, वे खा रहे थे तथा जिन साधुओं के अजीर्ण आदि था, वे दिन के पूर्वार्द्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने कुछ नहीं खाया था । श्रावकों ने चिन्तन किया कि अब तक सभी साधुओं ने खा लिया होगा अतः वंदना करके अपने स्थान पर चले जाना चाहिए । प्रहर से अधिक समय बीतने के बाद वे श्रावक साधु के उपाश्रय में गए और नैषिधिकी आदि श्रावकों की सारी क्रियाएं कीं। साधुओं ने जाना कि ये श्रावक अत्यन्त विवेकी हैं। बातचीत के दौरान साधुओं को ज्ञात हुआ कि ये अमुक ग्राम के निवासी हैं। चिन्तन करने पर साधुओं ने निष्कर्ष निकाला कि ये अवश्य ही हमारे लिए अपने ग्राम से मोदक लेकर आए हैं। जिन साधुओं ने खा लिया, उनको छोड़कर जो पूर्वार्द्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे तथा जो खा रहे थे उन्होंने अपने हाथ का कवल पात्र में दिया। जो कवल मुख में डाल दिया था, उसे निगला नहीं, मुख से निकालकर समीपवर्ती मल्लकपात्र में डाल दिया। पात्रगत सारा आहार और मोदक परिष्ठापित कर दिए। श्रावक और श्राविकाएं क्षमायाचना करके अपने गांव में वापस चले गए। जिन्होंने भोजन किया अथवा आधा किया, वे भी अशठभाव के कारण निर्दोष थे। १. गा. १५७/१-४ वृ प. १०३, १०४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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