________________
परि. ३ : कथाएं
२४९
साधु का पात्र देख लिया। तब कोपारुण नेत्र से उन्होंने मोदक रक्षक पुरुष से पूछा-'तुमने इस साधु को सारे मोदक कैसे दिए?' वह भय से कांपता हुआ बोला-'मैंने इनको मोदक नहीं दिए।' यह सुनकर माणिभद्र आदि सभी साथी साधु से बोले-'तुम चोर हो तथा साधु-वेश की विडम्बना करने वाले हो। तुम्हारा मोक्ष कहां है' ऐसा कहकर उन्होंने साधु का वस्त्र खींचा। फिर सारे पात्र, रजोहरण आदि ग्रहण करके उसको गृहस्थ बनाकर 'पच्छाकड़' बना दिया। वे सब साधु को राजकुल में ले गए और धर्माधिकारी को सारी बात बताई। उन्होंने साधु को सारी बात पूछी किन्तु लज्जा के कारण वह कुछ भी कहने में समर्थ नहीं हो सका। तब उन न्याय करने वाले अधिकारियों ने चिंतन किया-'यह निश्चित ही चोर है लेकिन यह साधु वेशधारी है अत: उसे जीवित छोड़कर देश निकाला दे दिया। २६. धात्रीदोष : संगमसूरि और दत्त कथानक
कोल्लकिर नगर में वृद्धावस्था के कारण जंघाबल से हीन संगम आचार्य प्रवास करते थे। एक बार दुर्भिक्ष होने पर सिंह नामक शिष्य को आचार्य बनाकर उसे सुभिक्ष क्षेत्र में प्रेषित कर दिया। वे स्वयं एकाकी रूप से वहीं रहने लगे। क्षेत्र को नौ भागों में विभक्त करके यतना पूर्वक मासकल्प और चातुर्मास करने लगे। एक वर्ष बीतने पर सिंह आचार्य ने अपने गुरु संगम आचार्य की स्थिति जानने के लिए दत्त नामक शिष्य को भेजा। वह जिस क्षेत्र में आचार्य को छोड़कर गया था, आचार्य उसी वसति में प्रवास कर रहे थे। दत्त ने अपने मन में चिंतन किया-'आचार्य ने भाव रूप से मासकल्प की यतना नहीं की है अत: शिथिल आचार वाले के साथ नहीं रहना चाहिए। यह सोचकर वह वसति के बाहर मण्डप में रुक गया। उसने आचार्य को वंदना तथा कुशलक्षेम की पृच्छा की। दत्त ने सिंह द्वारा प्रदत्त संदेश आचार्य को बताया। भिक्षावेला में वह आचार्य के साथ भिक्षार्थ गया। अंत-प्रान्त घरों में भिक्षा ग्रहण करके उसका मुख म्लान हो गया। तब आचार्य ने उसके भावों को जानकर किसी धनाढ्य सेठ के घर प्रवेश किया। वहां व्यन्तर अधिष्ठित होने के कारण एक बालक सदैव रोता था। आचार्य ने एक चिमटी बजाकर कहा-'वत्स! रोओ मत।' आचार्य के ऐसा कहने पर उनके प्रभाव से वह पूतना व्यन्तरी अट्टहास करती हुई वहां से अन्यत्र चली गई। बालक का रोना बंद हो गया। गृहस्वामी इस बात से अत्यन्त प्रसन्न हो गया। उसने साध को भिक्षा में अनेक मोदक दिए। दत्त मोदक को ग्रहण करके प्रसन्न हो गया। वह अपनी वसति में आ गया।
आचार्य अपने शरीर के प्रति निस्पृह थे अतः आगमविधि के अनुसार अंत-प्रान्त कुलों में भिक्षा करके उपाश्रय में लौटे। प्रतिक्रमण-वेला में आचार्य ने शिष्य दत्त से कहा-'वत्स! धात्रीपिण्ड और चिकित्सापिण्ड की आलोचना करो।' दत्त बोला-'मैं आपके साथ ही भिक्षार्थ गया अतः मुझे धात्रीपिण्ड परिभोग का दोष कैसे लगा?' आचार्य ने कहा-'लघु बालक को क्रीड़ा कराने से क्रीड़न धात्रीपिण्ड तथा चिमटी बजाने से बालक पूतना से मुक्त हुआ, यह चिकित्सापिण्ड हो गया।' तब द्वेषयुक्त मन में दत्त ने चिन्तन किया-'आचार्य स्वयं तो भावतः मासकल्प नहीं करते तथा प्रतिदिन ऐसा पिण्ड लेते हैं। मैंने एक
-
१. गा. १७९-१८० वृ प. ११३,११४, निभा ४५१७-१९ चू पृ. ४३७, पिंप्रटी प. ४७, ४८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org