Book Title: Agam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 419
________________ परि. ३ : कथाएं २४७ मूर्तिमान् धर्म के समान उस मुनि को आते हुए देखकर सुरदत्त ने वसुंधरा से कहा-'साधुओं को ऊपर माले से मोदक लाकर दो।' वह उस समय गर्भिणी थी लेकिन पति के आदेश को देवता की भांति स्वीकार करती हुई वह निःश्रेणि के माध्यम से ऊपर चढ़ने लगी। साधु को मालापहृत भिक्षा कल्पनीय नहीं है, यह कहकर साधु उस घर से बाहर निकल गए। . उसी समय कोई कापालिक भिक्षार्थ उस घर में प्रविष्ट हुआ। सुरदत्त ने कापालिक से पूछा- क्या साधुओं को मालापहृत भिक्षा कल्पनीय नहीं है?' मात्सर्य के कारण उसने असम्बद्ध भाषण कर दिया। सुरदत्त ने उसको भी मोदक देने हेतु वसुंधरा को आदेश दिया। निःश्रेणी पर चढ़ते हुए किसी प्रकार उसका पैर फिसल गया और वह नीचे गिर पड़ी। नीचे ब्रीहि दलने की घट्टी पड़ी थी। यंत्र की कील ने उसके पेट को दो भागों में चीर दिया। उसमें से स्पन्दन करता हुआ गर्भ बाहर निकल आया। कीलक द्वारा पेट के विदारित होने से अत्यन्त पीड़ा का अनुभव करता हुआ सब लोगों के देखते-देखते ही वह बालक मृत्यु को प्राप्त हो गया। कुछ क्षणों बाद वसुंधरा भी कालगत हो गई। कापालिक की चारों ओर निंदा होने लगी। एक दिन उसी घर में वही साधु भिक्षार्थ प्रविष्ट हुआ। सुरदत्त ने गुणचन्द्र नामक साधु को कहा-'आपने अपने ज्ञानचक्षु से दानदात्री का विनाश देखकर भिक्षा का परिहार कर दिया फिर आपने इस संदर्भ में हमको क्यों नहीं बताया? यदि आप बता देते तो वह उस समय ऊपरी माले पर नहीं चढ़ती।' साधु ने कहा-'मैं इस संदर्भ में कुछ नहीं जानता हूं। सर्वज्ञ का हम मुनियों के लिए उपदेश हैं कि साधु के लिए मालापहृत भिक्षा कल्पनीय नहीं है।' सुरदत्त ने मुनि से धर्म का श्रवण किया और प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। २४. आच्छेद्य दोष : गोपालक दृष्टांत बसन्तपुर नामक नगर में जिनदास नामक श्रावक था। उसकी पत्नी का नाम रुक्मिणी था। जिनदास के घर में वत्सराज नामक ग्वाला रहता था। वह आठवें दिन सभी गाय एवं भैंसों का दूध अपने घर ले जाता था जिससे वह घी बनाता था। एक दिन एक साधु भिक्षार्थ वहां आया। उस दिन ग्वाले की पूरा दूध लेने की बारी थी। उसने सभी गाय और भैंसों का अच्छी तरह दोहन किया। जिनदास जिन-प्रवचन के प्रति अत्यन्त अनुरक्त था। साधु को आते हुए देखकर उसने भक्तिपूर्वक यथेच्छ भक्तपान आदि दिया। 'भोजन के अंत में दूध लेना चाहिए' यह सोचकर भक्ति युक्त मानस से सेठ ने ग्वाले से बलात् दूध छीनकर थोड़ा दूध साधु को दे दिया। ग्वाले के मन में साधु के प्रति थोड़ा द्वेष आ गया लेकिन मालिक के भय से वह कुछ नहीं बोल सका। वह दूध के पात्र को घर लेकर गया। न्यून दुग्धपात्र को देखकर उसकी पत्नी ने रोषपूर्वक पूछा-'यह दुग्धपात्र आज थोड़ा खाली कैसे है?' ग्वाले ने सारी बात यथार्थ रूप से बता दी। उसकी पत्नी को भी साधु के ऊपर क्रोध आ गया। उसके बच्चों ने कम दूध को देखकर रोना प्रारंभ कर दिया। अपने पूरे कूटुम्ब को आकुल-व्याकुल देखकर साधु के प्रति वह ग्वाला अत्यन्त कुपित हो गया। वह साधु को मारने के लिए घर से चला। उसने किसी स्थान १. गा. १६८ वृ प. १०९, पिंप्रटी प.४६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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