Book Title: Agam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 418
________________ २४६ पिंडनियुक्ति २२. मालापहृत दोष : भिक्षु-दृष्टांत जयन्तपुर' नामक नगर में यक्षदत्त नामक गृहपति था। उसकी पत्नी का नाम वसुमती था। एक बार उनके घर में धर्मरुचि नामक साधु ने भिक्षार्थ प्रवेश किया। उस साधु को संयतेन्द्रिय, राग-द्वेष रहित तथा एषणा समिति से युक्त देखकर यक्षदत्त के मन में दान देने की विशेष भावना जाग गई। उसने अपनी पत्नी वसुमती को कहा-'इन साधुओं को मोदकों का दान दो।' मोदक ऊपर के माले में छींके के मध्य घड़े में रखे हुए थे। वह उनको लेने के लिए उठी। साधु मालापहृत भिक्षा को जानकर घर से बाहर चले गए। तत्काल उसी घर में भिक्षार्थ किसी अन्य भिक्षु ने प्रवेश किया। यक्षदत्त ने उस भिक्षु से पूछा-'अमुक साधु ने छींके से उतारकर दी गई भिक्षा को ग्रहण क्यों नहीं किया ?' प्रवचन-मात्सर्य के कारण भिक्षु ने कहा-'इन लोगों ने कभी अपने जीवन में दान नहीं दिया अतः इनको पूर्वकर्म के कारण धनाढ्य घरों का स्निग्ध और मधुर भोजन नहीं मिलता है। ये गरीब घरों से अन्त-प्रान्त भोजन प्राप्त करते हैं।' यक्षदत्त ने भिक्षु को मोदक देने हेतु वसुमती को कहा। वह छींके पर रखे घट से मोदक लेने के लिए उठी। घट में उत्तमद्रव्य से निष्पन्न मोदक की गंध से कोई सर्प आकर बैठ गया। वसुमती ने एड़ी के बल पर खड़े होकर मोदक लेने के लिए हाथों को अंदर डाला तो कामुक व्यक्ति की भांति सर्प ने उसके हाथ को जकड़ लिया। 'हाय मुझे सर्प ने काट लिया' इस प्रकार चिल्लाती हुई वह भूमि पर गिर पड़ी। यक्षदत्त ने फूत्कार करते हुए सर्प को देखा। उसने तत्काल सर्प का विष उतारने वाले मंत्रविदों को बुलाया। अनेक प्रकार की औषधियां लाई गईं। आयुष्य बल शेष रहने के कारण मंत्र और औषधि के प्रभाव से वह स्वस्थ हो गई। दूसरे दिन वही धर्मरुचि साधु भिक्षार्थ वहां आया। यक्षदत्त ने मुनि को उपालम्भ देते हुए कहा'तुम्हारा धर्म दयाप्रधान है फिर भी क्या यह तुम्हारे लिए उचित है कि सांप को देखते हुए भी आपने कल उसकी उपेक्षा कर दी।' मुनि ने कहा-'मैंने उस समय सांप को नहीं देखा था। हमारे लिए सर्वज्ञ का यह उपदेश है कि साधु को मालापहत भिक्षा नहीं लेनी चाहिए इसलिए मैं आपके घर से वापस लौट गया था।' यक्षदत्त ने अपने मन में सोचा-'भगवान् ने भिक्षुओं के लिए दोषरहित धर्म का उपदेश दिया है।' इस प्रकार चिन्तन करके यक्षदत्त ने अत्यन्त भक्तिपूर्वक धर्मरुचि साधु को वंदना की। वंदना करके उनसे जिनप्रणीत धर्म के बारे में पूछा। मुनि ने संक्षेप में धर्म का उपदेश दिया। उनको हेय और उपादेय का ज्ञान हो गया। मध्याह्न में गुरु के पास जाकर दम्पती ने धर्म का श्रवण किया। वैराग्य होने से उन्होंने वहीं दीक्षा ग्रहण कर ली। २३. मालापहृत दोष : वसुन्धरा दृष्टांत जयन्ती नामक नगरी में सुरदत्त नामक गृहपति रहता था। उसकी पत्नी का नाम वसुंधरा था। एक बार उसके घर गुणचन्द्र नामक साधु ने भिक्षार्थ प्रवेश किया। प्रशान्तमन, इहलोक-परलोक से निस्पृह तथा १. पिंप्र की टीका में जयन्तपुर के स्थान पर जयपुर नगर का उल्लेख है। २. गा. १६६/१, २ व प. १०८, पिंप्रटी प. ४६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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