Book Title: Agam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 414
________________ २४२ पिंड नियुक्ति अशुचि मानकर छोड़ दिया। आंगन के लेप को समूल उखाड़कर दुबारा दूसरे गोबर से सभा का लेप करवाया तथा भोजन भी दूसरा पकाकर खाया ।' १८. क्रीतकृतदोष : मंख-दृष्टांत शालिग्राम नामक गांव में देवशर्मा नामक मंख रहता था। उसके गृह के एक देश में कुछ साधुओं ने वर्षावास के लिए प्रवास किया। वह मंख उन साधुओं के राग-द्वेष रहित अनुष्ठान को देखकर उनका अत्यन्त भक्त बन गया । वह प्रतिदिन उनको आहार आदि के लिए निमंत्रित करता था । शय्यातर पिण्ड समझकर साधु सदैव उसका निषेध करते थे। मंख ने सोचा कि ये साधु मेरे घर से भक्त - पान आदि ग्रहण नहीं करते हैं, यदि मैं इनको अन्यत्र स्थान पर भिक्षा दूंगा तो भी ये ग्रहण नहीं करेंगे अतः जब ये विहार करके आगे जाएंगे तब मैं भी आगे जाकर किसी भी प्रकार इनको भिक्षा दूंगा। वर्षावास के कुछ दिन शेष रहने पर उसने साधुओं से पूछा - ' चातुर्मास के पश्चात् आप किस दिशा में जाएंगे ?' साधुओं ने सहजता से उत्तर दिया कि अमुक दिशा में जाएंगे। वह मंख उसी दिशा में किसी गोकुल में अपने पट को दिखाकर वचन - कौशल से लोगों के चित्त को आकृष्ट करने लगा। लोग उसको घी, दूध आदि देने लगे। मंख ने कहा - 'जब मैं आप लोगों से मांगू, तब आप लोग घी, दूध आदि देना।' चातुर्मास के पश्चात् साधु ग्रामानुग्राम विहार करने लगे। मंख ने अपने आपको प्रकट न करते हुए पूर्व प्रतिषिद्ध घरों से दूध, घी आदि की याचना करके एक घर में उनको एकत्र कर लिया। उसने साधुओं को निमंत्रित किया। छद्मस्थ होने के कारण साधु उसको पहचान नहीं सके। शुद्ध आहार समझकर उन्होंने दूध, घी आदि ग्रहण कर लिया। इस प्रकार क्रीत आहार ग्रहण करते हुए भी साधु दोष के भागी नहीं हुए क्योंकि उन्होंने यथाशक्ति भगवान् की आज्ञा की आराधना की थी। १९. लौकिक प्रामित्य : भगिनी-दृष्टांत कौशल जनपद के किसी गांव में देवराज नामक कौटुम्बिक रहता था । उसकी पत्नी का नाम सारिका था। उसके सम्मत आदि अनेक पुत्र तथा सम्मति आदि अनेक पुत्रियां थीं। पूरा कुटुम्ब अत्यन्त धार्मिक था। उसी गांव में शिवदेव नाम का श्रेष्ठी और उसकी पत्नी शिवा रहती थी। एक बार उनके गांव समुद्रघोष नामक आचार्य आए । आचार्य के मुख से जिनप्रणीत धर्म को सुनकर सम्मत के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । कालक्रम से गुरुचरण की कृपा से वह बहुश्रुत बन गया । एक बार उसके मन में चिन्तन उभरा कि यदि मेरा कोई स्वजन दीक्षा ले तो अच्छा रहेगा। यही वास्तविक उपकार है कि व्यक्ति को संसार-सागर से पार किया जाए। ऐसा सोचकर गुरु से पूछकर वह अपने बंधु के ग्राम में आया। गांव के बाहर उसने किसी वृद्ध व्यक्ति से पूछा कि यहां देवराज नामक कौटुम्बिक के परिवार वाले कोई व्यक्ति रहते हैं क्या ? वृद्ध ने उत्तर दिया- 'उस परिवार के सब व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं, केवल सम्मति नामक विधवा पुत्री जीवित है।' वह साधु उसके घर गया। भाई को आते देखकर वह १. गा. १०८/१, २ वृ प. ८३ । २. गा. १४२ / १, २ वृ प. ९७, पिंप्रटी प. ४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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