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पिंडनियुक्ति शरीर की मूर्छा से रहित, प्रवर्द्धमान विशुद्ध अध्यवसाय से भोजन करने के बाद उसे कैवल्य की प्राप्ति हो
१५. आज्ञा की आराधना-विराधना : उद्यान द्वय दृष्टांत
चन्द्रानना नामक नगरी में चन्द्रावतंसक राजा राज्य करता था। त्रिलोकरेखा आदि उसकी अनेक रानियां थीं। राजा के पास दो उद्यान थे-एक पूर्व दिशा में, जिसका नाम सूर्योदय था। दूसरा पश्चिम दिशा में, जिसका नाम चन्द्रोदय था। एक दिन बसन्त मास में राजा ने अंत:पुर के साथ क्रीड़ा करने की घोषणा करवाते हुए पटह फिरवाया-'प्रात:काल राजा सूर्योदय नामक उद्यान में अपने अंत:पुर के साथ यथेच्छ विहरण करेंगे अतः वहां कोई नागरिक न जाएं।' सारे तृणहारक और काष्ठहारक भी चन्द्रोदय उद्यान में चले जाएं। पटह फिरवाने के पश्चात् राजा ने सूर्योदय उद्यान की रक्षा हेतु सैनिकों की नियुक्ति कर दी और आदेश दिया कि कोई भी व्यक्ति उस उद्यान में प्रवेश न करे।
रात्रि में राजा ने चिन्तन किया कि सूर्योदय उद्यान में जाते हुए प्रातःकाल सूर्य सामने रहेगा और लौटते हुए मध्याह्न में भी सामने रहेगा। सम्मुख सूर्य की किरणें कष्टदायक होती हैं अत: मैं चन्द्रोदय उद्यान जाऊंगा। ऐसा सोचकर राजा ने वैसा ही किया। इधर पटह को सुनने के बाद भी कुछ दुश्चरित्र व्यक्तियों ने सोचा कि हमने कभी भी राजा के अंत:पुर को साक्षात् नहीं देखा है। प्रातः राजा सूर्योदय उद्यान में अंत:पुर के साथ आएगा और यथेच्छ विहरण करेगा। हम लोग पत्र बहुल वृक्ष की शाखा में इस प्रकार छिप जाएंगे कि कोई भी देख न पाए। इस प्रकार हम राजा के अंत:पुर को देख पाएंगे। उन्होंने वैसा ही किया। उद्यान रक्षकों ने वृक्ष की शाखा के बीच छिपे हुए उन लोगों को देख लिया। उनको पकड़कर डंडे से पीटा और रज्जु आदि से बांध दिया। जो दूसरे तृणहारक थे, वे सब चन्द्रोदय उद्यान में गए। उन्होंने यथेच्छ क्रीड़ा करते हुए राजा के अंत:पुर की रानियों को देखा। उनको भी राजपुरुषों ने पकड़ लिया। उद्यान से बाहर नगर के अभिमुख जाते हुए राजा के सन्मुख उद्यान-पालकों ने दोनों प्रकार के व्यक्तियों को उपस्थित किया और सारा वृत्तान्त बताया। जिन्होंने आज्ञा का भंग किया, उनकी अंत:पुर दर्शन की इच्छा पूरी नहीं हुई फिर भी उनको समाप्त कर दिया गया तथा जो चन्द्रोदय उद्यान में गए थे, उन्होंने आज्ञा का पालन किया था अतः अंत:पुर देखने पर भी उनको मुक्त कर दिया गया। १६. अनासक्ति : गोवत्स-दृष्टांत
गुणालय नामक नगर में सागरदत्त नामक श्रेष्ठी अपनी भार्या श्रीमती के साथ रहता था। श्रेष्ठी ने पहले बने हुए जीर्ण मंदिर को भग्न करके श्रेष्ठ मंदिर बनवाया। उसके चार पुत्र थे, जिनके नाम इस प्रकार थे-१. गुणचन्द्र २. गुणसेन ३. गुणचूड़ ४. गुणशेखर । इन चारों की पत्नियों के नाम क्रमशः इस प्रकार थे१. प्रियंगुलतिका २. प्रियंगुरुचिका ३. प्रियंगुसुंदरी ४. प्रियंगुसारिका। समय बीतने पर श्रेष्ठी की भार्या
१. गा. ९०/२-४.वृ प. ७५, पिंप्रटी प. २८, २९ । २. गा. ९१-९१/४ वृ प. ७६, पिंप्रटी प. २९।
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