Book Title: Agam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 410
________________ २३८ पिंडनियुक्ति सौदास और उग्रतेज भोजन के लिए उपस्थित हुए। उसने उन दोनों को वह मांस परोसा। गंध विशेष से उग्रतेज ने जान लिया कि यह वान्त मांस है। उसने भृकुटि चढ़ाकर रुक्मिणी को मांस के संबंध में पूछा। क्रोधयुक्त चढ़ी हुई भृकुटि देखकर वह वृक्ष की शाखा की भांति कांपने लगी और यथार्थ स्थिति बता दी। उस मांस को फेंककर उसने दूसरा मांस पकाया तब दोनों ने भोजन किया। १२. अविधिपरिहरण : साधु-दृष्टांत शालि नामक गांव में ग्रामणी नामक वणिक् रहता था। उसकी पत्नी का नाम भी ग्रामणी था। एक बार वणिक् के दुकान जाने पर कोई साधु घूमते हुए भिक्षार्थ उसके घर आया। ग्रामणी शाल्योदन लेकर आई। साधु ने आधाकर्म दोष की आशंका से उसके बारे में पूछा-'श्राविके! यह शालि कहां से आया है ?' ग्रामणी ने कहा-'मैं इस बारे में कुछ नहीं जानती, वणिक् जानता है अत: उससे पूछो।' साधु शाल्योदन छोड़कर वणिक् की दुकान पर गया और उससे शालि के बारे में पूछा। वणिक् ने कहा-'मगध जनपद के प्रत्यन्तवर्ती गोबर ग्राम से यह शालि आया है।' वह साधु वहां जाने के लिए तैयार हो गया। साधु ने सोचा कि संभव है यह रास्ता भी किसी श्रावक ने साधु के लिए बनाया हो अतः आधाकर्म की आशंका से वह मूल रास्ते को छोड़कर उत्पथ में जाने लगा। उत्पथ में जाने से सांप, कांटे एवं श्वापदों के उपद्रव भी सहन करने पड़े। आधाकर्म की आशंका से वह वृक्ष की छाया का भी परिहार करते हुए चला। सूर्य के तेज से तप्त होकर वह रास्ते में मूछित हो गया और महान् कष्ट को प्राप्त किया। १३. आधाकर्म में परिणत : संघभोज्य-दृष्टांत शतमुख नामक नगर में गुणचन्द्र श्रेष्ठी निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम चन्द्रिका था। श्रेष्ठी जिन-प्रवचन में अनुरक्त था। उसने हिमगिरि की तुलना करने वाला जिनमंदिर का निर्माण करवाया और उसमें आदिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित की। उस उपलक्ष्य में उसने संघ-भोज का आयोजन किया। प्रत्यासन्न गांव में कोई साधु वेश की विडम्बना करने वाला साधु रहता था। उसने जनश्रुति से सुना कि शतमुख नगर में गुणचन्द्र नामक श्रेष्ठी आज संघभोज दे रहा है। वह संघ-भोज को प्राप्त करने के लिए शीघ्रता से चलकर उस गांव में आया। पत्नी ने सारा संघभक्त दे दिया था। साधु ने श्रेष्ठी से संघभक्त की याचना की। सेठ ने चन्द्रिका को कहा–'साधु को भोजन दो।' चन्द्रिका ने कहा-'मैंने सारा भोजन दे दिया, १. गा. ८६ ७. प. ७१, पिंप्रटी प. १९, इस कथानक में मतान्तर भी मिलता है। टीकाकार मलयगिरि ने मतान्तर वाली कथा का संकेत भी किया है। उसके अनुसार रुक्मिणी के घर में किसी अतिसार रोग से पीड़ित दुष्प्रभ नामक कार्पटिक ने एकान्त स्थान की याचना की। उसने अतिसार रोग के कारण मांसखंडों का उत्सर्ग किया। मार्जार द्वारा मांस खाने पर पति और जेठ की भोजन-वेला उपस्थित होने पर तथा अन्य मांस प्राप्त न होने पर भयभीत होकर उसने अतिसार में त्यक्त मांसखण्डों को लेकर जल से धोकर उनको मसाले आदि से उपस्कृत करके पका दिया और भोजन-वेला आने पर उन दोनों को परोस दिया। उसी समय मृत सपत्नी के पुत्र गुणमित्र ने अपने पिता और पितृव्य का हाथ पकड़कर उन्हें खाने से रोकते हुए सारी बात बताई। उग्रतेज ने अपनी पत्नी की भर्त्सना की और उस मांस का परिहार कर दिया (गा. ८६/१ व प. ७१)। २. गा. ८९/१-३ वृ प. ७२, ७३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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