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परि. ३ : कथाएं
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अब कुछ भी नहीं बचा है।' सेठ ने कहा-'अपने भोजन में से साधु को भिक्षा दो।' तब उसने शाल्योदन, मोदक आदि की भिक्षा दी। साधु ने संघभक्त की बुद्धि से उसे ग्रहण किया और उपाश्रय में जाकर उसको खाया। शुद्ध भोजन ग्रहण करने पर भी आधाकर्म ग्रहण के परिणाम से उसने आधाकर्म भोग जनित कर्मों का बंधन कर लिया। १४. विधि-परिहरण : प्रियंकर क्षपक दृष्टांत
पोतनपुर नामक नगर में ५०० साधुओं के साथ विहार करते हुए रत्नाकर नामक आचार्य का पदार्पण हुआ। उन साधुओं में एक प्रियंकर नामक तपस्वी साधु था। वह एक मास पर्यन्त तपस्या करके पारणा करता था। मासखमण के पारणे में कोई आधाकर्म भोजन न बनाए, इस आशंका से वह प्रत्यासन्न गांव में भिक्षार्थ गया। वहां यशोमती नामक श्राविका रहती थी। उसने उस तपस्वी मुनि के मासखमण के पारणे के बारे में सुना। उसने सोचा शायद वह तपस्वी मुनि भिक्षा के लिए मेरे घर आ जाए अत: उसने परम भक्ति से विशिष्ट शालि-तण्डुल की खीर बनाई। शक्ति बढ़ाने वाले घृत, गुड़ आदि पदार्थों से उसे भावित किया। 'पायस उत्तम द्रव्य है' यह सोचकर साधु को आधाकर्म की शंका न हो अत: माया से वट आदि के पत्र से बने शराव आकार के भाजन में बच्चों के योग्य थोड़ी-थोड़ी खीर उसमें डाल दी और बच्चों से कहा कि इस प्रकार के तपस्वी साधु जब यहां आएं तो तुम कहना-'हे अम्ब! तुमने हमको बहुत अधिक खीर परोसी है, हम इसको खाने में समर्थ नहीं हैं।' तुम लोगों के द्वारा ऐसा कहने पर मैं तुम लोगों की भर्त्सना करूंगी। तब तुम लोग कहना- 'तुम प्रतिदिन खीर क्यों बनाती हो?' बालकों को इस प्रकार शिक्षित करने पर उसी समय वह तपस्वी साधु सर्वप्रथम भिक्षा के लिए उसके घर आया। साधु को देखकर वह अत्यन्त उल्लसित हो गई लेकिन साधु को किसी प्रकार की आशंका न हो इसलिए बाहर से ज्यादा आदर न दिखाती हुई सहज अवस्था में रही। बालक भी प्रशिक्षण के अनुसार बोलने लगे। उसने बालकों को उपालम्भ दिया। उसने क्षपक से कहा- ये कैसे मत्त बालक हैं, जिनको पायस भी रुचिकर नहीं लगती है। यदि आपको खीर रुचिकर लगती है तो ग्रहण करो, अन्यथा आगे चले जाओ।' यशोमती के द्वारा ऐसा कहने पर साधु नि:शंक हो गया और खीर ग्रहण करने के लिए उद्यत हो गया। उसने भी अत्यन्त भक्ति से खीर, घत और गड आदि से पात्र भर दिया। साध भी आधाकर्म की शंका से रहित होकर विशद्ध अध्यवसाय से खीर ग्रहण करके वृक्ष के नीचे गया। वहां जाकर उसने विधिपूर्वक ईर्यापथिकी क्रिया की तथा प्रतिक्रमण करके चिन्तन किया-'मैंने आज उत्तम द्रव्य पायस तथा घृत, गुड़ आदि प्राप्त किए हैं। यदि कोई साधु आकर संविभाग करे तो मैं संसार-समुद्र से तर जाऊं क्योंकि साधु निरन्तर स्वाध्याय में लीन रहते हैं। संसार से विमुख होकर मोक्ष-मार्ग में तल्लीन रहते हैं, गुरु, शैक्ष आदि की सेवा में लीन रहते हैं। परोपदेश में प्रवण होते हैं, संयम के अनुष्ठान में रत रहते हैं। उनको संविभाग देने से तद्गत ज्ञानादि का लाभ होता है। ज्ञानादि की वृद्धि से मुझे महान् लाभ की प्राप्ति होगी। यह शरीर असार और निरुपयोगी है।'
१. गा. ९०/१ वृ प. ७४, पिंप्रटी प. २८॥
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