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परि. ३ : कथाएं
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स्वाभाविक नहीं हैं। संभव है हम लोगों के बंधन हेतु किसी धूर्त ने यह जाल बिछाया है। इसके अतिरिक्त तालाब हमेशा वर्षाकाल में भरते हैं, ग्रीष्मकाल में नहीं। यदि कोई यह कहे कि विन्ध्य पर्वत के झरने के प्रवाह से सरोवर भरे हैं और नलवण उगे हैं तो यह बात भी तर्क संगत नहीं है क्योंकि पहले भी अनेक झरने थे लेकिन सरोवर कभी भी इतने पानी से नहीं भरे।' जिन हाथियों ने यूथपति के वचनों का पालन किया, वे दीर्घकाल तक सुखपूर्वक वन में विचरण करते रहे लेकिन जिन्होंने पालन नहीं किया वे बंधनग्रस्त होकर दुःखी हो गए। ३. उद्गम : लड्डुकप्रियकुमार कथानक
श्रीस्थलक नामक नगर के राजा का नाम भानु था। उसकी पटरानी का नाम रुक्मिणी और पुत्र का नाम सुरूप था। पांच धात्रियों के द्वारा राजकुमार का सुखपूर्वक पालन-पोषण हो रहा था। नागकुमार देवों की भांति वह अनेक स्वजनों को आनंद देता हुआ कौमार्य अवस्था को प्राप्त हुआ। शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की कलाओं की भांति अनेक कलाओं से वृद्धिंगत होता हुआ, सुंदर स्त्रियों के मन को प्रसन्न करता हुआ कुमार यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ। उसको मोदक बहुत प्रिय थे अतः लोक में उसका 'मोदकप्रिय' नाम प्रसिद्ध हो गया।
एक दिन वह कुमार प्रात: बसन्तकाल में शयनकक्ष से उठकर सभामण्डप में गया। वहां सुंदर नृत्य आदि का आयोजन था। भोजन-वेला आने पर उसकी मां ने उसके लिए मोदक भेजे। उसने परिजनों के साथ यथेच्छ मोदक खाए। रात्रि में गीत-नृत्य आदि के कारण जागरण होने से वे मोदक पचे नहीं। अजीर्ण दोष के कारण उसकी अपान वायु दूषित हो गई। वह दुर्गन्ध उसके नाक तक पहुंची। कुमार ने सोचा कि ये मोदक घृत, गुड़ और आटे से बने हैं। ये तीनों पदार्थ शुचि हैं लेकिन शरीर के सम्पर्क से ये अशुचि रूप में परिणत हो गए। कपूर आदि सुरभित पदार्थ भी शरीर के सम्पर्क से क्षणमात्र में दुर्गन्धयुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार के अशुचि रूप तथा अनेक दोषों से युक्त इस शरीर के लिए जो व्यक्ति पापकर्म का सेवन करते हैं, वे सचेतन होते हुए भी मोहनिद्रा के कारण अचेतन जैसे ही होते हैं। विद्वत्ता वही प्रशंसनीय होती है, जो हेय और उपादेय तथा हान और उपादान का चिन्तन करती रहती है। वे व्यक्ति धन्य हैं, जो शरीर से निस्पृह होकर सम्यक् शास्त्र के अभ्यास से ज्ञानामृत के सागर में निमज्जन करते रहते हैं, शत्रु और मित्र के प्रति सम रहते हैं, परीषहों को जीतते हैं और कर्मों के निर्मूलन के लिए प्रयत्न करते रहते हैं। राजकुमार ने चिंतन करते हुए सोचा कि मैं भी महान् व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण मार्ग का अनुगमन करूंगा। इस प्रकार उस मोदकप्रिय राजकुमार के मन में वैराग्य का उद्गम होने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का उद्गम हो गया और उसे कैवल्य की प्राप्ति हो गई। ४. प्रतिसेवना : चोर-दृष्टान्त
किसी गांव में बहुत डाकू रहते थे। एक बार वे किसी सन्निवेश से गाय चुराकर अपने गांव की
१. गा. ५४/१, ५५ वृ प. ३१, ३२ । २. गा. ५७/२-४ वृ प. ३३, ३४ ।
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