Book Title: Agam 41 Mool 02 Pind Niryukti Sutra
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 406
________________ २३४ पिंडनियुक्ति एक दिन संकुल गांव के पास भद्रिल नामक ग्राम में आचार्य का आगमन हुआ। उन्होंने क्षेत्र प्रतिलेखन के लिए साधुओं को संकुल ग्राम में भेजा। साधुओं ने श्रावक जिनदत्त के पास आकर वसति की याचना की। जिनदत्त ने अत्यन्त प्रसन्नता से कल्पनीय वसति में रहने की अनुज्ञा प्रदान की। साधुओं ने स्थण्डिल भूमि एवं सम्पूर्ण गांव की प्रतिलेखना की। उपाश्रय में आकर जिनदत्त श्रावक ने ज्येष्ठ साधु से पूछा-'क्या आपको यह क्षेत्र पसंद आया? क्या आचार्य इस क्षेत्र में पदार्पण कर सकते हैं?' उनमें से ज्येष्ठ साधु ने उत्तर दिया-'वर्तमानयोगेन।' उनके उत्तर से जिनदत्त को ज्ञात हुआ कि इनको क्षेत्र पसंद नहीं आया है। जिनदत्त ने सोचा कि अन्य साधु भी यहां आते हैं लेकिन यहां कोई रुकता नहीं है, इसका कारण अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। मूल कारण को जानने के लिए उसने किसी अन्य साधु को पूछा। उसने सरलतापूर्वक सारी बात बताते हुए कहा-'इस क्षेत्र में सारे गुण हैं, यह क्षेत्र गच्छ के योग्य है लेकिन यहां आचार्य के योग्य शाल्योदन नहीं हैं।' इस बात को जानकर जिनदत्त श्रावक दूसरे गांव से शालि-बीज लेकर आया और अपने गांव में उनका वपन कर दिया। वहां प्रभूत शालि की उत्पत्ति हुई। एक बार विहार करते हुए उन साधुओं के साथ कुछ अन्य साधु भी उस गांव में आए। श्रावक जिनदत्त ने सोचा-'मुझे इन साधुओं को शाल्योदन की भिक्षा देनी चाहिए, जिससे आचार्य के योग्य क्षेत्र समझकर ये साधु आचार्य को भी इस क्षेत्र में लेकर आएं। यदि मैं केवल अपने घर से शाल्योदन दूंगा और अन्य घरों में कोद्रव आदि धान्य की प्राप्ति होगी तो साधुओं को आधाकर्म की शंका हो जाएगी।' उसने सभी स्वजनों के घर शाल्योदन भेजकर कहा-'तुम स्वयं शाल्योदन पकाकर खाओ और साधुओं को भी दान दो।' यह बात सब बालकों को भी ज्ञात हो गई। साधु जब भिक्षार्थ गए तो उन्होंने बालकों के मुख से अनेक बातें सुनीं। कोई बालक बोला-'ये वे साधु हैं, जिनके लिए घर में शाल्योदन बना है।' अन्य बालक बोला-'साधु संबंधी शाल्योदन को मेरी मां ने मुझे दिया।' कहीं-कहीं कोई दानदात्री श्राविका बोली'यह परकीय शाल्योदन दिया, अब मेरे घर की भिक्षा भी लो।' कोई गृहस्वामी अपनी पत्नी से बोला'परकीय शाल्योदन भिक्षा में दे दिया, अब अपना बनाया हुआ आहार भी भिक्षा में दो।' कोई अनभिज्ञ बालक अपनी मां से कहने लगा-'मुझे साधु से संबंधित शाल्योदन दो।' दरिद्र व्यक्ति सहर्ष बोला'हमारे यहां भक्त का अभाव होने पर भी शालि भक्त बना है। यह अवसर पर अवसर के अनुकूल बात हुई है। कहीं कोई बालक अपनी मां से बोला-'मां! शालि तण्डुलोदक साधु को दो', दूसरा बालक १. यहां टीकाकार ने कथा के बीच में थक्के थक्कावडियं'-अवसर पर अवसर के अनुकूल होना को स्पष्ट करने के लिए एक लौकिक दृष्टान्त का उल्लेख किया है-सूर नामक गांव में यशोधरा नामक एक ग्वालिन रहती थी। उसके पति का नाम योगराज तथा देवर का नाम वत्सराज था। उसकी भार्या का नाम योधनी था। एक बार किसी कारण से योधनी और योगराज की एक साथ मृत्यु हो गई। तब यशोधरा ने अपने देवर वत्सराज को कहा-'मैं तुम्हारी पत्नी बनना चाहती हूं।' देवर ने सोचा कि मेरी भी पत्नी नहीं है अतः उसने भाभी का सुझाव स्वीकृत कर लिया। यशोधरा ने सोचा-'अहो! अवसर पर अवसर के अनुकूल कार्य हो गया। जिस समय मेरे पति का देहावसान हुआ, उसी समय मेरे देवर की पत्नी की भी मृत्यु हुई। इसी कारण देवर ने मुझे पत्नी के रूप में स्वीकृत कर लिया, अन्यथा वह मेरी बात स्वीकृत नहीं करता' (गा. ७६/४ वृ. प. ६४)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492