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वायु विषयक छठा तथा आहार विषयक पहला और दूसरा भाग - ये चारों भाग अवस्थित हैं।
३१४. मूर्च्छित होकर आहार की प्रशंसा करते हुए आहार करना, स- अंगार आहार कहलाता है तथा आहार की निंदा करते हुए खाना सधूम आहार है।
पिंडनिर्युक्ति
३१४/१. . जो ज्वलित ईंधन अभी अंगारा नहीं बना है, वह सधूम कहलाता है। वही ईंधन दग्ध हो जाने पर तथा धूम निकल जाने पर अंगार कहलाता है।
३१४ / २. मुनि प्राक आहार भी यदि रागाग्नि से प्रज्वलित होकर करता है तो वह चारित्र रूपी ईंधन को शीघ्र ही निर्दग्ध अंगारे की भांति बना डालता है।
३१४/३. जलती हुई द्वेषाग्नि अप्रीति के धूम से चारित्र रूपी ईंधन को जब तक अंगार सदृश नहीं बना डालती, तब तक जलती रहती है।
३१५. रागभाव से किया जाने वाला भोजन स- अंगार तथा द्वेषभाव से किया जाने वाला भोजन सधूम होता है। भोजन की विधि में छयालीस दोष जानने चाहिए। (उद्गम के १५, उत्पादन के १६, एषणा के १० तथा संयोजना आदि ५ ) "
३१६. प्रवचन का यह उपदेश है कि तपस्वी मुनि ध्यान और अध्ययन के निमित्त विगत अंगार - रागरहित तथा विगतधूम - द्वेष रहित होकर आहार करे ।
३१७. मुनि छह कारणों से आहार करता हुआ भी धर्म का आचरण करता है और छह कारणों से आहार का परित्याग करता हुआ भी धर्म का आचरण करता है।
३१८. आहार करने के छह कारण ये हैं - १. भूख की वेदना को उपशांत करने के लिए, २. वैयावृत्त्य करने के लिए ३. ईर्यापथ के शोधन हेतु, ४. प्रेक्षा आदि संयम के निमित्त, ५. प्राणप्रत्यय - प्राण - धारण के लिए तथा ६. ग्रंथ का परावर्तन, धर्मचिंतन-धर्म की अभिवृद्धि के लिए ।
३१८/१. क्षुधा के समान कोई वेदना नहीं होती अतः उसे शान्त करने के लिए भोजन करना चाहिए। भूखा वैयावृत्त्य करने में समर्थ नहीं होता अतः भोजन करना चाहिए।
३१८/२. बुभुक्षित ईर्यापथ का शोधन नहीं कर सकता अतः ईर्यापथ के शोधन हेतु भोजन करना चाहिए । प्रेक्षा आदि के संयम हेतु आहार करना चाहिए। आहार न करने से शरीर बल क्षीण हो जाता है अतः (प्राणधारण हेतु) भोजन करना चाहिए तथा आहार न करने से गुणन-ग्रंथ - परावर्तन तथा अनुप्रेक्षा आदि करने में व्यक्ति अशक्त हो जाता है इसलिए भोजन करना चाहिए ।
१. उद्गम के १६ दोषों में अध्यवपूरक का मिश्रजात में समावेश होने से उद्गम के १५ दोष ही यहां गृहीत हैं ( मवृ प. १७६) ।
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