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पिंडनियुक्ति
३०६. जो मुनि द्रव्य की रसवृद्धि करने के लिए भक्तपान में अन्य द्रव्यों का मिश्रण-संयोजन करता है, उसके यह व्याघात होता है३०७. भाव विषयक संयोजना में जो मुनि रस की आसक्ति से द्रव्यों की संयोजना करता है, वह अपनी आत्मा के साथ कर्मों की भी संयोजना करता है। कर्म से दीर्घकालीन भव-परम्परा को संयोजित करता है, जिससे दुःख उत्पन्न होता है। ३०८. कभी किसी साधु संघाटक को घी आदि द्रव्यों का प्रचुर लाभ हुआ। मुनियों द्वारा पर्याप्त खा लेने पर भी वह सामग्री बच गई। उस बची हुई सामग्री को उपभोग में लेने के लिए संयोजना अनुज्ञात है। उस समय संयोजना करने का विधान इस प्रकार है३०९. विशेष रस (स्वाद) को बढ़ाने के लिए संयोग का प्रतिषेध किया गया है। ग्लान के लिए संयोग किया जा सकता है तथा जिसको आहार अरुचिकर लगता हो अथवा जो सुखोचित-राजपुत्र आदि रहा हो अथवा जो अभावित-अपरिणत शैक्ष आदि हो-इनके लिए संयोजना करना विहित है। ३१०. पुरुष के लिए बत्तीस कवल प्रमाण आहार कुक्षिपूरक माना जाता है तथा महिलाओं के लिए अट्ठाईस कवल पर्याप्त माने जाते हैं। ३११. इस प्रमाण से किंचित्मात्रा में अर्थात् एक कवल, आधा कवल न्यून अथवा आधा आहार अथवा आधे से भी आधा आहार लिया जाता है, उसे तीर्थंकरों ने यात्रामात्र आहार अथवा न्यून आहार कहा है। ३१२. जो मुनि प्रकाम, निकाम और प्रणीत भक्तपान का उपभोग करता है, अति बहुल मात्रा में अथवा बहुत अधिक बार भोजन करता है, वह प्रमाणदोष है। ३१२/१. बत्तीस कवल से अधिक आहार को प्रकाम आहार कहते हैं। प्रमाणातिरिक्त आहार यदि
१. बचे हुए घी को बिना मिश्री या खांड के केवल रोटी के साथ खाना संभव नहीं है क्योंकि भोजन करने के बाद सबको तृप्ति
हो जाती है। उसका परिष्ठापन भी उचित नहीं होता क्योंकि परिष्ठापन से उस चिकनाई पर अनेक कीटिकाओं का व्याघात
संभव है अत: यह संयोजना का अपवाद है कि बचे हुए घी में खांड द्रव्य आदि को मिलाना विहित है (मवृ प १७३)। २. टीकाकार मलयगिरि के अनुसार ३२ कवल प्रमाण आहार मध्यम प्रमाण है। महिलाओं का मध्यम प्रमाण २८ कवल
तथा नपुंसक का मध्यम प्रमाण २४ कवल है लेकिन नपुंसक दीक्षा के लिए अयोग्य होने के कारण उसका यहां उल्लेख नहीं किया गया है। एक कवल का प्रमाण मुर्गी के अंडे जितना माना गया है। कुक्कुटी दो प्रकार की होती है-द्रव्य कुक्कुटी और भाव कुक्कुटी । द्रव्य कुक्कुटी के दो प्रकार हैं-उदर कुक्कुटी और गल कुक्कुटी। जितने आहार से साधु का उदर न भूखा रहे और न अधिक भरे, वह आहार उदर कुक्कुटी है। मुख को विकृत किए बिना गले के अंदर जो कवल समा सके, वह गल कुक्कुटी है। टीकाकार दूसरे नय से व्याख्या करते हुए कहते हैं कि शरीर ही कुक्कुटी है और मुख अण्डक है। जिस कवल से आंख, भ्रू आदि विकृत न हों, वह प्रमाण है अथवा कुक्कुटी का अर्थ है-पक्षिणी, उसके अंडे जितना कवल प्रमाण है। भाव कुक्कुटी का अर्थ है, जिस आहार से धृति बनी रहे तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो, उतना आहार करना भाव कुक्कुटी है (मवृ प. १७३)। मूलाचार की टीका में एक हजार चावल जितने को एक कवल का प्रमाण माना है। (मूला ३५० टी पृ. २८६)
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