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अनुवाद
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३०२. ग्रासैषणा के चार प्रकार हैं-नाम ग्रासैषणा, स्थापना ग्रासैषणा, द्रव्य ग्रासैषणा तथा भाव ग्रासैषणा। द्रव्य ग्रासैषणा में मत्स्य का उदाहरण ज्ञातव्य है तथा भाव ग्रासैषणा के पांच प्रकार हैं। ३०२/१. (विवक्षित अर्थ का प्रतिपादन करने के लिए) दो प्रकार के उदाहरण जानने चाहिए-चरित
और कल्पित। जैसे ओदन आदि को सिद्ध करने के लिए ईंधन आवश्यक होता है, वैसे ही प्रतिपाद्य को सिद्ध करने के लिए उदाहरण आवश्यक होता है। ३०२/२. मांस क्षीण होने पर चिन्ता करते हुए मच्छीमार को मत्स्य कहता है कि तुम चिन्ता क्यों करते हो? तुम कितने निर्लज्ज हो यह सुनो३०२/३. मैं तीन बार बगुले के मुख में जाकर भी उससे छूट गया। तीन बार भ्राष्ट्र रूप समुद्र के ज्वार में गिरा, इक्कीस बार जाल में पकड़ा गया, एक बार कम पानी वाले द्रह में डाला गया (फिर भी मैं बच गया)। ३०२/४. ऐसा मेरा सत्त्व है फिर भी तुम वही कुटिलतापूर्ण धीवरकृत उपाय को कर रहे हो। तुम मुझे कांटे के द्वारा पकड़ना चाहते हो, यह तुम्हारी निर्लज्जता है।' ३०२/५. हे जीव! तुम एषणा के बयालीस दोषों से विषम आहार-पानी के ग्रहण में नहीं ठगे गए अतः अब उनका उपभोग करते हुए तुम राग-द्वेष से मत ठगे जाना। ३०३. भाव ग्रासैषणा के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त। अप्रशस्त के पांच प्रकार हैं, इन दोषों से रहित प्रशस्त भावग्रासैषणा है। ३०३/१. संयोजना, अतिप्रमाण में भोजन, इंगालदोष, धूमदोष तथा बिना कारण भोजन करना-ये पांच ग्रासैषणा के अप्रशस्त भेद हैं तथा इसके विपरीत संयोजना आदि नहीं करना प्रशस्त है। ३०४, ३०५. संयोजना के दो प्रकार हैं-द्रव्य संयोजना और भाव संयोजना। द्रव्य संयोजना के दो प्रकार हैं-बाह्य और आंतरिक । रसविशेष को पैदा करने के लिए दूध, दही, सूप, कट्टर-तीमन मिश्रित घी का बडा. गड, घी का बडा तथा वालंक-पक्वान्न विशेष मिलने पर अनकल द्रव्यों का संयोग करना बाह्य संयोजना है। इसी प्रकार उपाश्रय में भोजन करते समय जो संयोजना की जाती है, वह आन्तरिक संयोजना है। वह तीन प्रकार की है -पात्र में, कवल में तथा मुंह में। इनकी विभाषा-व्याख्या करनी चाहिए।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं.५०। २. अप्रशस्त ग्रासैषणा के पांच भेदों के लिए देखें ३०३/१ का अनुवाद। ३. दूध में चीनी मिलाना बाह्य संयोजना है। ४. रस-गृद्धि के कारण पात्र में दो द्रव्यों को मिलाना पात्र संबंधी आभ्यन्तर संयोजना है। हाथ में लिए कवल में खांड आदि
का संयोग करना कवल संबंधी आभ्यन्तर संयोजना है तथा मुख में पहले रोटी डालकर फिर गुड़ आदि डालना-यह वदन संबंधी आभ्यन्तर संयोजना है (मवृ प. १७२)।
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