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अनुवाद
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२९५/७. शिष्य बोला-महाराष्ट्र तथा कौशलक देश में उत्पन्न मनुष्य सौवीर कूर का भोजन करते हुए जीवन-यापन करते हैं तो भला मुनिजन उस भोजन से अपना जीवन-यापन क्यों नहीं कर सकते? २९५/८. आचार्य ने कहा-श्रमणों का त्रिक' शीत होता है और गृहस्थों का वही त्रिक उष्ण होता है। (यदि श्रमण प्रतिदिन आचाम्ल करे और तक न ले तो अजीर्ण आदि दोष होते हैं।) अतः मुनि के लिए तक्र आदि का ग्रहण अनुज्ञात है। कट्टर-घृतवटिका से मिश्रित तीमन द्रव्य के ग्रहण की भजना है-(ग्लानत्व आदि की स्थिति में लिया जा सकता है, अन्यथा नहीं।) २९५/९. शीतकाल में भी गृहस्थों का यह त्रिक-आहार, उपधि और शय्या-उष्ण होता है इसलिए उनका भोजन (बिना तक्रादि ग्रहण किए भी) बाहर और आभ्यन्तर ताप से जीर्ण हो जाता है। २९५/१०. यही त्रिक (आहार, उपधि और शय्या) मुनियों के लिए ग्रीष्मकाल में भी शीत होता है। उससे जठराग्नि मंद होने से अजीर्ण आदि दोष होते हैं।
२९६. शुष्क अलेपकृद् द्रव्य
• ओदन-तण्डुल आदि। • सत्तु-जौ आदि का चूर्ण। • कुल्माष-उड़द।
• राजमाष-श्वेत चवला। • गोल चना।
• वल्ल-निष्पाव। • तुवरी-अरहर की दाल। • मसूर। • मूंग
• माष–काली उड़द आदि। २९७. अल्पलेपकृद् द्रव्य ये हैं, इनके ग्रहण में पश्चात्कर्म की भजना है
• उद्भेद्य-बथुआ आदि शाक। • पेया-यवागू। • कंगू-कोद्रव धान्य। • तक्र-छाछ। • उल्लण-जिससे ओदन गीला किया जाता है। • सूप-रांधा हुआ मूंग आदि का सूप। • कांजिक-कांजी। • क्वथित-कढ़ी आदि।
१. त्रिक-आहार, उपधि और शय्या। २. मुनि भिक्षा के लिए अनेक घरों में घूमता है अत: प्राप्त उष्ण आहार उपाश्रय में पहुंचते-पहुंचते ठंडा हो जाता है। वर्ष में
एक बार वर्षा काल से पूर्व वस्त्र-प्रक्षालन के कारण कपड़े तथा वसति के निकट अग्नि न होने से शय्या भी शीतल होती है इसलिए तक्र आदि का ग्रहण साधु के लिए अनुज्ञात है। तक्र से जठराग्नि प्रदीप्त होती है (मवृ प. १६८)।
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