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पिंडनियुक्ति
२९२. अपरिणत भी दो प्रकार का है-द्रव्य अपरिणत तथा भाव अपरिणत। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैंदायकसंबंधी तथा ग्राहकसंबंधी। द्रव्य विषयक अपरिणत षट्काय के आधार पर छह प्रकार का होता है तथा भावविषयक अपरिणत है-भाई आदि। २९३. सचेतन पृथ्वी आदि जब तक सजीव है, तब तक अपरिणत है और व्यपगत जीव होने पर परिणत होती है। यहां दूध-दही का दृष्टान्त है। दूध जब दही बनता है, तब परिणत कहलाता है और दूध दूधभाव में अवस्थित रहने पर अपरिणत कहलाता है। २९४. जो देय वस्तु सामान्यतया दो या अनेक व्यक्तियों की है, उनमें एक की इच्छा है कि मैं मुनि को दूं शेष व्यक्तियों की इच्छा नहीं होती तो वह भावतः अपरिणत है। २९५. भिक्षार्थ गए दो मुनियों में एक मुनि ने देय वस्तु को मन ही मन एषणीय माना, दूसरे मुनि ने एषणीय नहीं माना, वह भी भावतः अपरिणत होने के कारण अग्राह्य है। दातृ विषयक भाव अपरिणत के दो भेद हैं-भ्रातृविषयक तथा स्वामिविषयक। ग्रहीतृविषयक भाव अपरिणत है-साधुविषयक। २९५/१. मुनि सदा अलेपकृद् द्रव्य ही ले क्योंकि लेपकृद् द्रव्य ग्रहण करने से पश्चात्कर्म की संभावना रहती है तथा अलेपकृद् द्रव्य के ग्रहण से रसगृद्धि का प्रसंग भी नहीं आता। यह कहने पर शिष्य कहता है। २९५/२. यदि पश्चात्कर्म आदि दोषों की संभावना से लेपकृद् द्रव्य अग्राह्य है तो फिर मुनि को कभी भोजन करना ही नहीं चाहिए। आचार्य ने कहा-'शिष्य! सतत तपोनुष्ठान करने वाले मुनि के तप, नियम
और संयम की हानि होती है अतः भोजन करना आवश्यक है।' २९५/३. लेपकृद् सदोष है अत: शिष्य कहता है कि मुनि यावज्जीवन भोजन न करे। यदि यावज्जीवन संभव न हो तो छह महीनों तक उपवास कर आचाम्ल का ग्रहण करे। यदि यह भी संभव न हो तो अल्पलेप वाला द्रव्य ग्रहण करे। २९५/४, ५. यदि मुनि सर्वकाल तपस्या न कर सके तो छह महीनों तक निरंतर तपस्या कर पारणक में आचाम्ल करे। यदि छह महीनों तक निरंतर तप न कर सके तो प्रत्येक छह महीनों में एक-एक दिन न्यून करता हुआ तब तक आचाम्ल का पारणक करता रहे, जब तक कि अंतिम न्यूनता उपवास तक न पहुंच जाए। यदि यह भी संभव न हो तो प्रतिदिन अलेपकृद् आचाम्ल करे। २९५/६. (आचार्य उत्तर देते हैं)-यदि मुनि के वर्तमान काल में तथा भविष्य काल में योगों की हानि न होती हो तो वह छह मास आदि की तपस्या करे। तपस्या में एक-एक दिन की हानि से, पूर्वोक्त प्रकार से, पारणक में आचाम्ल करे। यह संभव न हो तो निरंतर आचाम्ल तप करे।
१. टीकाकार मलयगिरि अनिसृष्ट और दातृभाव से अपरिणत का अंतर स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सामान्यतः अनिसृष्ट में
दाता परोक्ष होते हैं लेकिन दातृभाव से अपरिणत में दाता समक्ष होता है (मवृ प. १६६)।
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