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पिंडनियुक्ति
२८८/२. स्थविर यदि गृहस्वामी हो, हाथ कांप रहे हो परन्तु देय वस्तु दूसरे के हाथ में हो अथवा वह दृढ़ शरीर वाला हो तो उसके हाथ से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। जो अव्यक्त रूप से मत्त है, श्राद्ध है, अविह्वल है-परवश नहीं है और दूसरा गृहस्थ वहां नहीं है तो उसके हाथ से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। २८८/३. जो उन्मत्त व्यक्ति पवित्र और भद्रक है, कंपमान शरीर वाले का हाथ यदि दृढ़ है, ज्वरित व्यक्ति का ज्वर शांत हो गया है, अंधा व्यक्ति श्रावक है तथा दूसरे के हाथ में देयवस्तु है अथवा अंधा व्यक्ति दूसरे के सहारे चलकर आया है-इन सबसे देय वस्तु का ग्रहण किया जा सकता है। २८८/४. जो व्यक्ति मंडलप्रसुप्तिकुष्ठ' (वृत्ताकार कोढ़ विशेष) से ग्रस्त है, वहां यदि कोई गृहस्थ न हो तो उससे भिक्षा ली जा सकती है। इसी प्रकार जो पादुकारूढ व्यक्ति स्थिर है, बेड़ी पहना हुआ व्यक्ति यदि सविचार है-चलने-फिरने में समर्थ है तो उसके हाथ से भिक्षा ली जा सकती है। हाथ-पैर से विकल व्यक्ति जो इधर-उधर चलने में असमर्थ है परन्तु बैठा हुआ है, वहां कोई दूसरा गृहस्थ नहीं है तो उसके हाथ से भी भिक्षा ली जा सकती है। हाथों में बेड़ी पहना व्यक्ति भिक्षा देने में समर्थ नहीं होता अत: उसका प्रतिषेध है, वहां भजना नहीं है। यदि छिन्न कर वाला व्यक्ति सागारिक के अभाव में भिक्षा देने में समर्थ है तो उससे भिक्षा लेनी विहित है। २८८/५. यदि नपुंसक अप्रतिसेवी है तो उसके हाथ से भिक्षा ली जा सकती है। नौवें मास वाली गर्भवती स्त्री तथा स्तन्योपजीवी शिशु वाली स्त्री के हाथ से भिक्षा नहीं ली जा सकती है। इसी प्रकार खाती हुई, भूनती हुई तथा दलती हुई स्त्री के हाथ से भिक्षा लेने की भी भजना है। स्त्री ने धान कूटने के लिए मुसल
१. मवृ प. १६३ ; मंडलानि-वृत्ताकारदद्रुविशेषरूपाणि, प्रसूतिः-नखादिविदारणेऽपि चेतनाया असंवित्तिस्तद्रपो यः कष्ठः
रोगविशेष: सोऽस्यास्तीति-वृत्ताकार कोढ विशेष, जिसमें गोल चकत्ते हो जाते हैं, नख आदि से विदारण करने पर भी चेतना की अनुभूति नहीं होती, वह मंडलप्रसुप्तिकुष्ठ है। टीकाकार मलयगिरि ने पसूई-प्रसूति पाठ के आधार पर व्याख्या की है लेकिन व्यवहारभाष्य में पसुत्ति पाठ है। वहां चित्रप्रसुप्ति और मण्डलप्रसुप्ति-ये दो प्रकार के अस्यन्दमान चर्मरोग का उल्लेख मिलता है। चित्रप्रसुप्ति में शरीर में श्वेत, काले आदि विचित्र धब्बे हो जाते हैं तथा मण्डलप्रसुप्ति में गोल चकत्ते हो जाते हैं । कुछ हस्तप्रतियों में भी 'पसूई' पाठ है लेकिन यहां 'पसुत्ति' पाठ होना चाहिए। २. टीकाकार मलयगिरि इस गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि नवमास वाली गर्भवती स्त्री के हाथ की भिक्षा
स्थविरकल्पी मुनि परिहार करते हैं। इससे कम वाली के हाथ से स्थविरकल्पी भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। वह बालक जो केवल मां के दूध पर ही आधृत है, उसका स्थविरकल्पी परिहार करते हैं। जो बालक बाह्य आहार भी ग्रहण करता है, उसकी मां से स्थविरकल्पी भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। दूसरी बात वह शरीर से भी बड़ा हो जाता है अत: उसे मार्जार आदि
का भय भी नहीं रहता। जिनकल्पी साधु आपन्नसत्वा (गर्भवती) एवं बालवत्सा स्त्री का सर्वथा परिहार करते हैं (मवृ प.१६४)। ३. खाती हुई स्त्री ने यदि मुख में कवल नहीं डाला है तो उसके हाथ से भिक्षा कल्प्य है। भूनती हुई स्त्री यदि सचित्त गेहूं आदि
को कड़ाह में डालकर निकाल चुकी है, दूसरी बार हाथ में गेहूं नहीं लिए हैं, इसी बीच यदि साधु आ जाता है तो उसके हाथ से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। मूंग आदि दलती हुई स्त्री सचित्त मूंग आदि दलकर घट्टी को छोड़ चुकी है, इसी बीच साधु आए तो वह उठकर भिक्षा दे सकती है अथवा वह अचित्त मूंग दल रही है तो उसके हाथ से भिक्षा कल्पनीय है। कंडन करती हुई स्त्री यदि मुशल को ऊपर उठा चुकी है, उस मुशल में यदि कोई बीज नहीं लगा है, इसी बीच साधु के आने पर दोष रहित स्थान में उस मुशल को रखकर भिक्षा दे तो वह ग्राह्य है (मत् प. १६४)।
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