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अनुवाद
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२८४, कुछ आचार्य षट्कायव्यग्रहस्ता उसको मानते हैं, जो आभूषण रूप में बदर आदि को कानों में पहने हुई हो तथा शिर पर सिद्धार्थक - सरसों के फूल लगाए हुए हो, उसके हाथ से भक्त-पान लेना नहीं
कल्पता ।
२८४/१. अन्य आचार्य मानते हैं कि एषणा के दस दोषों में इसका ग्रहण नहीं हुआ है इसलिए बदर आदि से युक्त दात्री से भक्तपान लेना वर्ज्य नहीं है। इसके उत्तर में कहा गया है कि दायक के ग्रहण से इसका ग्रहण स्वयं ही हो जाता है।
२८५. जिस दात्री के हाथ और पात्र संसक्त - जीव युक्त द्रव्य से लिप्त हैं, वह यदि भिक्षा देती है तो हाथ आदि पर लगे हुए सत्त्वों की विराधना होती है। बड़े बर्तन को टेढ़ा करके देने से वहां संचारिम चींटी, मकोड़े आदि के घात की संभावना रहती है। इसी प्रकार बड़ा बर्तन उठाकर देने में भी ये ही दोष होते हैं ।
२८६. अनेक लोगों की वस्तु को देने वाली दात्री से भिक्षा ग्रहण करने में वे ही दोष हैं, जो पहले अनिसृष्ट द्वार' में बताए गए हैं। कर्मकर या स्नुषा आदि चुराकर वस्तु दे तो ग्रहण, बंधन आदि दोष संभव हैं ।
२८७. प्राभृतिका को बलि आदि के निमित्त स्थापित करके भिक्षा देने में प्रवर्तन आदि दोष होते हैं । अपाय के तीन प्रकार हैं- तिर्यग्, ऊर्ध्व और अधः । जो अन्यतीर्थिकों के लिए अथवा ग्लान आदि के लिए रखा गया हो, उसे साधु ग्रहण न करे ।
२८८. जो दाता अनुकंपा के वशीभूत होकर मुनियों के लिए बनाकर कुछ देता है अथवा कोई जानते हुए भी द्वेषवश मुनियों को आधाकर्म आदि एषणादोष युक्त भक्तपान देता है - वह आभोगदायक है । कोई अजानकारी के कारण अशठभाव से वैसा करता है, वह अनाभोगदायक है, ये दोनों दायक अयोग्य हैं।
२८८/१. बालक यदि केवल भिक्षा देता है तो वहां विचारणा नहीं होती, भिक्षा ली जा सकती है। माता द्वारा संदिष्ट बालक से भी भिक्षा ग्राह्य है। यदि बालक बहुत देता है तो वहां विचारणा होती है, वहां माता आदि की अनुज्ञा से भिक्षा ली जा सकती है।
१. बड़ा बर्तन कभी-कभी प्रयोजन वश ही उठाया जाता है अतः उसके नीचे अनेक जीव एकत्रित हो जाते हैं । उसको टेढ़ा करने एवं उठाकर रखने में उन जीवों के वध की संभावना रहती है तथा दाता को भी पीड़ा होती है ( मवृ प. १६२ ) । २. देखे गाथा १८० का अनुवाद मवृ प. ११४ ।
३. परतीर्थिक कार्यटिक आदि के लिए स्थापित भिक्षा लेने से अदत्तादान का दोष लगता है। साधु ग्लान आदि के निमित्त दिया हुआ आहार ग्लान को ही लाकर दे। यदि वह ग्रहण न करे तो पुनः दात्री को समर्पित करे। यदि दानदात्री कहे कि ग्लान साधु यदि यह भिक्षा ग्रहण नहीं करता है तो आप स्वयं ग्रहण करें, तब वह द्रव्य साधु के लिए कल्प्य होता है ( मवृ प. १६२ ) । ४. इस गाथा की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि यदि माता पास में खड़ी हुई आज्ञा दे तो मुनि बालक के हाथ से भिक्षा ग्रहण कर सकता है । बालक यदि भिक्षा देता है तो मुनि पृच्छा करे कि आज प्रभूत भिक्षा देना क्यों चाहते हो ? इस स्थिति में यदि मां आज्ञा दे तो भिक्षा ग्रहण करना कल्पनीय होता है। (मवृ प. १६३ )
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