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पिंडनियुक्ति
है तथा छिन्न हाथ वाले से भिक्षा लेने पर भी अशुचि के कारण लोगों में जुगुप्सा होती है तथा देय वस्तु नीचे गिर सकती है। इसी प्रकार छिन्नपाद वाले दायक से भिक्षा लेने से ये सारे दोष संभव हैं। विशेष बात यह है कि छिन्नपाद वाला दायक भिक्षा देने के लिए चलते समय गिर सकता है, (जिससे सत्त्व-व्याघात होता है)। २७८. नपुंसक दायक से भिक्षा लेने पर आत्मदोष, परदोष तथा उभयदोष होते हैं। उनसे बार-बार भिक्षा ग्रहण करने से अति परिचय होता है, जिससे नपुंसक व्यक्ति या साधु में क्षोभ-वेदोदय उत्पन्न हो सकता है। लोगों में यह जुगुप्सा होती है कि ये साधु भी ऐसे ही नपुंसक हैं। २७९. भिक्षादान के लिए गर्भवती के उठने-बैठने से गर्भ का संचलन होता है। बालवत्सा स्त्री बालक को नीचे रखकर भिक्षा देने जाती है तो उस बालक को मार्जार आदि मांसखंड समझकर उठाकर ले जा सकते हैं, जिससे बालक का विनाश हो सकता है। २८०. भोजन करती हुई स्त्री भिक्षा देने के लिए हाथ धोती है, इससे उदक की विराधना होती है। यदि आचमन नहीं करके जूठे हाथों से दान देती है तो लोक में गर्दा होती है। इसी प्रकार दही को मथती हुई स्त्री के दधि-लिप्त हाथ से भिक्षा लेने से दही में स्थित रस-जीवों का घात होता है। २८१. पेषण, कंडन तथा दलन करती हुई स्त्री के हाथ से भिक्षा लेने पर उदक तथा बीज आदि का संघट्टन होता है। जो स्त्री चने आदि मूंज रही है, उसके हाथ से भिक्षा लेने पर भिक्षादान में समय लगने पर चने आदि जल सकते हैं। जो स्त्री रुई पीज रही हो, कात रही हो अथवा उसका प्रमर्दन कर रही हो, वह भिक्षा देकर पदार्थ से खरंटित हाथों को धो सकती है, जिससे उदक-जीवों की घात होती है। २८२. जिसके हाथ में सजीव लवण, पानी, अग्नि, वायु से भरी हुई दृति, फल, मत्स्य आदि हों, वह षट्कायव्यग्रहस्ता कहलाती है। भिक्षा देने के लिए वह इनको भूमि पर रखती है, पैरों से अथवा शरीर के अन्य अवयवों-हाथ आदि से उनका संघट्टन, सम्मर्दन करती है, उससे भिक्षा लेना वर्जनीय है। २८३. पृथ्वी का खनन करती हुई, सचित्त जल से स्नान करती हुई, सचित्त जल से वस्त्र आदि धोती हुई, वृक्ष आदि को सींचती हुई, (अग्नि को जलाती हुई अथवा सचित्त वायु से भरी हुई वस्ती को इधर-उधर फेंकती हुई), शाक आदि का छेदन करती हुई, शाक आदि के खंडों को आतप में सुखाती हुई, तण्डुल
आदि को साफ करती हुई तथा छठे जीवनिकाय त्रसकाय में तड़फते हुए मत्स्यों का छेदन करती हुई स्त्रियां जीवों की हिंसा करती हैं अत: इनके हाथ से भिक्षा ग्रहण करना नहीं कल्पता।
१. टीकाकार मलयगिरि ने बालवत्सा स्त्री से भिक्षा लेने का एक और दोष बताते हुए कहा है कि साधु को भिक्षा देने से हाथ
आहार से खरंटित हो जाते हैं। आहार से लिप्त शुष्क हाथ कर्कश होते हैं, उससे बालक को उठाने पर बालक को पीड़ा होती हैं (मवृ प. १६१)। २. मूल गाथा में तेजस्काय और वायुकाय आदि का हनन करती हुई स्त्री का उल्लेख नहीं है। यह टीका के आधार पर लिखा
गया है अत: इसे कोष्ठक में रखा है (मत् प. १६१)।
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