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अनुवाद
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को उठा लिया, इतने में मुनि आ गए। वह यदि मुसल को किसी दोषरहित उचित स्थान में रखे तो उसके हाथ से भिक्षा ली जा सकती है। २८८/६. पीसने वाली स्त्री यदि पेषण कार्य से निवृत्त हो गई हो अथवा प्रासुक वस्तु पीस रही हो तो उसके हाथ से भिक्षा ली जा सकती है। दही मथने वाली स्त्री के हाथ यदि शंखचूर्ण आदि से असंसक्त हों अथवा कातने वाली स्त्री के हाथ शंखचूर्ण से खरंटित न हों तथा शंखचूर्ण के खरंटित हाथ से कातती हुई भी यदि जल से हाथ न धोए तो इन सबके हाथ से भिक्षा ली जा सकती है। २८८/७. कपास को लोठते समय यदि कपास हाथ में न हो अथवा उठती हुई यदि कपास का संघट्टन न करती हो तो उस स्त्री के हाथ से भिक्षा ग्रहण की जा सकती है। यदि रुई के पिंजन और प्रमर्दन में भी पश्चात्कर्म न हो तो भिक्षा ली जा सकती है। २८८/८. शेष षट्कायव्यग्रहस्ता आदि में प्रतिपक्ष की अर्थात् अपवाद की संभावना नहीं है। प्रतिपक्ष के अभाव में भिक्षा ग्रहण न करने की नियमा है। २८९. उन्मिश्र के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। उन्मिश्र की तीन चतुर्भंगियां होती हैं। प्रत्येक में आद्य के तीन विकल्प प्रतिषिद्ध हैं, चौथे विकल्प की भजना है। २९०, २९१. संहरण द्वार में पृथ्वीकाय आदि के जो सांयोगिक भंग किए थे, वैसे ही उन्मिश्र दोष में भी होते हैं। उन दोनों में विशेष अंतर यह है-द्रव्य दो प्रकार के होते हैं-दातव्य-साधु को देने योग्य और अदातव्य। दोनों को मिश्रित करके जो देता है, वह उन्मिश्र है। जैसे-ओदन को कुशन-दही आदि से मिश्रित करके देना। संहरण में भाजनस्थ अदेय वस्तु को अन्यत्र संहरण किया जाता है, यही दोनों में भेद है। २९१/१. उन्मिश्र के भी संहरण की भांति चार विकल्प हैं-शुष्क में शुष्क उन्मिश्र आदि । अल्प और बहुत्व तथा आचीर्ण और अनाचीर्ण के भी चार-चार विकल्प संहरण की भांति ही होते हैं।
१. विस्तार हेतु देखें गा. २५६ का टिप्पण। गाथा में आए 'तु' शब्द से यह गम्य है कि प्रथम चतुर्भंगी में चारों विकल्पों में भिक्षा
का प्रतिषेध है। शेष दो चतुर्भगी में प्रथम तीन भंगों में प्रतिषेध है, चरम भंग में भिक्षा-ग्रहण की भजना है। २. संहरण आदि प्रत्येक द्वार के भंगों के आधार पर ४३२ भंग इस प्रकार बनते हैं-सचित्त पृथ्वी का सचित्त पृथ्वीकाय पर
संहरण, सचित्त पृथ्वीकाय का सचित्त अप्काय पर संहरण । इसी प्रकार स्वकाय और परकाय की अपेक्षा ३६ भंग होते हैं। इनके सचित्त, अचित्त और मिश्र पद से प्रत्येक की तीन चतुभंगी होने से १२ भेद होते हैं । १२ का ३६ से गुणा करने पर
४३२ भेद होते हैं इसी प्रकार उन्मिश्र आदि के जानने चाहिए (मवृ प. १६५)। ३. उन्मिश्र की चतुर्भंगी इस प्रकार है
• शुष्क में शुष्क का उन्मिश्र। • शुष्क में आर्द्र का उन्मिश्र। • आर्द्र में शुष्क का उन्मिश्र।
• आर्द्र में आर्द्र का उन्मिश्र। ४. विस्तार हेतु देखें मवृ प. १६५।
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