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पिंडनियुक्ति
दी जाने वाली भिक्षा भी वर्ण्य है, इसका कारण है कि मक्षिका, पिपीलिका आदि की हिंसा न हो। २४५/२. लोक में गर्हित मांस, वसा, शोणित तथा आसव (मदिरा) से खरंटित हाथ या पात्र से लेना वर्ण्य है तथा लोक और लोकोत्तर में गर्हित मूत्र और उच्चार से प्रक्षित हाथ या पात्र से लेना भी वर्जित है। २४६. षट्काय आदि पर निक्षिप्त दो प्रकार का है-सचित्त और मिश्र। इनके दो-दो प्रकार हैं-अनन्तर
और परंपर। २४७. पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, वनस्पति और त्रस-इन सबका आपस में छह प्रकार से निक्षेप संभव है। प्रत्येक का दो प्रकार से निक्षेप होता है-अनंतर और परम्पर। केवल अग्निकाय में पृथ्वीकाय आदि से सात प्रकार का निक्षेप होता है। २४८. सचित्त पृथ्वीकाय पर सचित्त पृथ्वी का निक्षेप इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय, वायुकाय तथा त्रसकाय का निक्षेप होता है।। २४९. पृथ्वीकाय की भांति ही शेष जीव-निकायों का भी निक्षेप होता है। इनमें एक-एक विकल्प स्वस्थान तथा शेष पांच परस्थान होते हैं। २५०. इसी प्रकार (सचित्त पर सचित्त के निक्षेप की भांति) मिश्र पृथ्वी पर सचित्त पृथ्वी आदि का निक्षेप, सचेतन पृथ्वी आदि पर मिश्र पृथ्वी आदि का निक्षेप, मिश्रपृथ्वी पर मिश्रपृथ्वी का निक्षेप होता है। सचित्त
और मिश्र दोनों का अचित्त पर निक्षेप होता है। २५१. जिस निक्षेप में सचित्त और मिश्र के आधार पर चतुर्भंगी होती है, उन चारों भंगों-विकल्पों में प्रत्येक और अनन्त वनस्पति के अनन्तर और परंपर निक्षेप में भक्तपान अग्राह्य होता है। २५१/१. अथवा प्रतिपक्ष के आधार पर चतुर्भंगी इस प्रकार होती है
१. सचित्त पर सचित्तमिश्र। ३. सचित्तमिश्र पर अचित्त। २. अचित्त पर सचित्तमिश्र। ४. अचित्त पर अचित्त।
१. मवृ प. १५०; एतच्चोत्कृष्टानुष्ठानं जिनकल्पिकाद्यधिकृत्योक्तमवसेयं, स्थविरकल्पिकास्तु यथाविधि यतनया घृताद्यपि,
गुडादिम्रक्षितमशोकवाद्यपि च गृह्णन्ति-वृत्तिकार का कथन है कि यह निर्देश जिनकल्पिक की दृष्टि से है। स्थविरकल्पी
मुनि यथाविधि घृत, गुड़ आदि से खरंटित हाथों से भिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। २. पृथ्वीकाय से संबंधित छह प्रकार के निक्षेप इस प्रकार हैं-१. पृथ्वीकाय का पृथ्वीकाय पर २. पृथ्वीकाय का अपकाय पर
३. पृथ्वीकाय का तेजस्काय पर ४. पृथ्वीकाय का वायुकाय पर ५. पृथ्वीकाय का वनस्पतिकाय पर ६. पृथ्वीकाय का त्रसकाय पर। इसी प्रकार अप्काय आदि के भी छह-छह भेद होते हैं (मवृ प. १५१)। ३. अग्निकाय के सप्त भेद हेतु देखें गाथा २५२ का अनुवाद। ४. पृथ्वीकाय का पृथ्वीकाय पर निक्षेप स्वस्थान निक्षेप है। ५. पृथ्वीकाय पर अप्काय आदि शेष कायों का निक्षेप परस्थान निक्षेप है। ६. विशेष विवरण हेतु देखें मवृ प. १५१।
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