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अनुवाद
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इनमें प्रथम तीन भंगों में भक्तपान ग्रहण की बात ही नहीं होती। चतुर्थ भंग में भक्तपान ग्रहण करना कल्प्य है। २५१/२. जो कोई अचित्त द्रव्य, सचित्तद्रव्य अथवा मिश्रद्रव्य पर निक्षिप्त होता है, वहां अनंतर अथवा परंपर की मार्गणा होती है। २५१/३. जो अवगाहिम-पक्वान्न आदि पृथ्वी पर आनन्तर्य से स्थापित होता है, वह अनन्तर निक्षिप्त है तथा जो पृथ्वी पर रखे हुए पिठरक आदि पर निक्षिप्त होता है, वह परंपर निक्षिप्त है। नवनीत आदि सचित्त उदक पर निक्षिप्त होता है, वह अनन्तर निक्षिप्त है तथा जो नवनीत आदि पानी में स्थित नाव आदि पर निक्षिप्त होता है, वह परंपर निक्षिप्त है। २५२. अग्नि के सात प्रकार हैं-विध्यात, मुर्मुर, अंगारा, अप्राप्तज्वाला, प्राप्तज्वाला, समज्वाला तथा व्युत्क्रान्तज्वाला। प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं-अनन्तर और परंपर। यंत्र-इक्षुरस को पकाने के लिए प्रयुक्त कटाह आदि जो मिट्टी से अवलिप्त है, उससे यतनापूर्वक बिना नीचे गिराए हुए इक्षुरस लेना कल्पता है। २५२/१. जो अग्नि पहले दिखाई नहीं देती लेकिन बाद में ईंधन डालने पर स्पष्ट दिखाई देती है, वह विध्यात कहलाती है। आपिंगल रंग के अर्धविध्यात अग्निकण मुर्मुर हैं। ज्वाला रहित अग्नि अंगारा कहलाती है। २५२/२. चूल्हे पर स्थित भाजन को अप्राप्त अग्नि अप्राप्तज्वाला कहलाती है। पिठरक का स्पर्श करने वाली अग्नि प्राप्तज्वाला, जो बर्तन के ऊपरी भाग तक स्पर्श करती है, वह समज्वाला तथा जो अग्नि चूल्हे पर चढ़े बर्तन के ऊपर तक पहुंच जाती है, वह व्युत्क्रान्तज्वाला कहलाती है। २५३. पार्श्व में मिट्टी से अवलिप्त विशाल मुख वाली कड़ाही या बर्तन से बिना गिराए हुए इक्षुरस लेना कल्पनीय है लेकिन वह अग्नि पर तत्काल चढ़ाया हुआ अर्थात् अधिक उष्ण नहीं होना चाहिए। २५३/१. गुड़रस से परिणामित अनतिउष्ण जल भी ग्रहण किया जा सकता है। कड़ाह से दीयमान उदक उस कड़ाह के उपरितन भाग (कर्ण) तक घट्टित नहीं होता तो वह कल्पता है तथा घट्टित होने पर अग्नि में गिरे तो वह नहीं कल्पता।
१. विध्यात आदि शब्दों की व्याख्या हेतु देखें २५२/१,२ का अनुवाद एवं मवृ प. १५२। २. टीकाकार इस गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि बर्तन में चारों ओर मिट्टी के लेप का अर्थ यह है कि इक्षुरस लेते हुए यदि कुछ बिन्दु गिर जाएं तो उसे मिट्टी ही सोख ले, वे बिन्दु चूल्हे के मध्य अग्निकाय पर न गिरें। विशालमुख भाजन का तात्पर्य यह है कि इक्षुरस निकालते समय रस पिठरक के किनारे पर न लगे तथा पिठरक के ऊपर का भाग भग्न न हो (मवृ प. १५३)। ३. जिस कड़ाह में पहले गुड़ पकाया था, उसमें डाला गया जल यदि कुछ ही तप्त हुआ है तो भी वह लिया जा सकता है
क्योंकि कड़ाह में लगे हुए गुडरस के कारण वह जल शीघ्र ही अचित्त हो जाता है (मवृ प. १५३)।
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