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पिंडनियुक्ति
चतुर्भगियों के प्रथम तीन-तीन विकल्पों में ग्रहण नहीं कल्पता, चतुर्थ विकल्प में ग्रहण की भजना है। २५७. जैसे निक्षिप्त द्वार (गाथा २५१/१) में सचित्त, अचित्त तथा मिश्र के संयोग से विकल्प कहे गए हैं, वैसे ही पिहित में भी जानने चाहिए। केवल द्वितीय और तृतीय चतुर्भंगी के तीसरे भंग में नानात्व है। २५८, २५९. अंगार से धूपित वस्तु अनन्तर पिहित है। अंगार से भृत शराव आदि से पिहित पिठर परंपर पिहित है। अंगार-धूपित आदि में अतिरोहित वायु अनन्तर पिहित है और वही यदि वायु से भरी दृति आदि से पिहित होता है तो वह परंपर पिहित है। वनस्पति के विषय में अतिरोहित फल आदि से पिहित अनन्तर पिहित तथा फलों से भरे छब्बक, पिठरक आदि से ढका हुआ परंपर पिहित है। इसी प्रकार त्रसकाय के विषय में जो कच्छप, कीटिका-पंक्ति आदि से पिहित है, वह अनन्तर पिहित तथा कच्छप, कीटिका आदि से गर्भित पिठरक आदि से पिहित परंपर पिहित है। २५९/१. अचित्त देय वस्तु से पिहित की चतुर्भंगी इस प्रकार है
• भारी वस्तु से पिहित भारी देय वस्तु। • हल्की वस्तु से पिहित भारी देय वस्तु। • भारी वस्तु से पिहित हल्की देय वस्तु । • हल्की वस्तु से पिहित हल्की देय वस्तु।
इनमें प्रथम और तृतीय विकल्प में वस्तु अग्राह्य है तथा द्वितीय और चतुर्थ भंग में ग्राह्य है। २६०. संहत के तीन भेद हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। संहृत की तीन चतुर्भंगियां होती हैं। प्रारंभ के तीन-तीन भंगों का प्रतिषेध है और चरम भंग की भजना है।' २६१. जैसे निक्षिप्तद्वार में सचित्त, अचित्त और मिश्र पदों के संयोग हैं, उसी प्रकार संहृत द्वार के भी जानने चाहिए। केवल द्वितीय, तृतीय चतुर्भंगी के तीसरे-तीसरे भंग की मार्गणा-विधि में नानात्व है। २६२. जिस मात्रक से दाता दान देता है, उसमें यदि अदेय अशन आदि हो तो उसको भूमि पर या अन्यत्र डालकर अन्न आदि देना संहृत दोष है। २६३, २६३/१. मात्रक में स्थित वस्तु का सचित्त पृथ्वी आदि छहों कायों पर संहरण-छर्दन होता है।
१. विस्तार हेतु देखें मवृ प. १५६।। २. इस गाथा की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि गुरु अर्थात् भारी पदार्थ को उठाने में वस्तु हाथ से छूटने पर पैर
आदि के चोट या अंगभंग संभव है। द्वितीय भंग में देय वस्तु गुरु है पर उसे उठाकर देना आवश्यक नहीं, कटोरी आदि से
भी भिक्षा दी जा सकती है अत: दूसरे विकल्प में भिक्षा लेना कल्पनीय है (मवृ प. १५५)। ३. मवृ प. १५६ ; अत्र गाथापर्यन्ततुशब्दसामर्थ्यात्प्रथमचतुर्भङ्गीकायाः सर्वेष्वपि भङ्गेषु प्रतिषेधः- गाथा के अंत में आए 'तु'
शब्द से ग्रंथकार का आशय है कि प्रथम चतुर्भंगी में चारों ही भंगों में आहार-ग्रहण का निषेध है। ४. विस्तार हेतु देखें २५६ गाथा का टिप्पण तथा मवृ प. १५६ ।
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