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३. भोजन में शंकित
• ग्रहण में नहीं ।
४. न ग्रहण में शंकित और न भोजन में शंकित ।
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ग्रहण और भोजन - दोनों में अथवा किसी एक में शंकित होने पर शंकित दोष से संबद्ध हो जाता है। सोलह - उद्गम दोष तथा नौ एषणा के दोष - इन पच्चीस दोषों में से जिस दोष से शंकित होता है, वह उसी दोष से सम्बद्ध होता है।' चौथा विकल्प ( ग्रहण और भोजन - दोनों में शंकित न होना) शुद्ध है।
पिंडि
२३८/१. उद्गम के आधाकर्म आदि सोलह दोष तथा एषणा के प्रक्षित आदि नौ दोष- ये पच्चीस दोष हैं। चरम विकल्प शुद्ध है।
२३८/२. उद्गम के सोलह दोष तथा शंका को छोड़कर एषणा के ९ दोष- ये पच्चीस दोष निःशंकित रूप से कहने चाहिए।
२३९. छद्मस्थ, श्रुतज्ञानी, प्रयत्नपूर्वक उपयुक्त और ऋजुक मुनि पच्चीस दोषों में से किसी एक दोष को प्राप्त होने पर भी श्रुतज्ञान के प्रमाण से शुद्ध है ।
२३९/१. सामान्यतः श्रुतोपयुक्त (पिंडनिर्युक्ति आदि में) मुनि यद्यपि अशुद्ध आहार ग्रहण करता है, फिर भी उसको केवलज्ञानी खाता है अन्यथा श्रुतज्ञान अप्रमाण हो जाता है।
२४०. सूत्र का अप्रामाण्य होने पर चारित्र का अभाव हो जाएगा, चारित्र का अभाव होने पर मोक्ष का अभाव हो जाएगा और मोक्ष के अभाव में दीक्षा की प्रवृत्ति निरर्थक हो जाएगी ।
२४० / १. घर में दी जाने वाली प्रचुर भिक्षा सामग्री को देखकर भी मुनि लज्जावश पूछताछ करने में समर्थ नहीं होता। वह शंकित होकर भिक्षा ग्रहण करता है और शंकित अवस्था में ही उसका उपभोग करता है। ( यह प्रथम विकल्प है ।)
२४०/२. मुनि ने शंकित हृदय से भिक्षा ग्रहण की। दूसरे मुनि ने इसका शोधन करते हुए कहा कि यह भोजन प्रकरणवश किसी अतिथि आदि के लिए बनाया हुआ था अथवा यह प्रहेणक- किसी अन्य घर से आई हुई भोजन सामग्री थी । यह सुनकर मुनि ने निःशंकित होकर उस भिक्षा का उपभोग किया। (यह चतुर्भंगी का दूसरा विकल्प है ।)
२४०/३. गुरु के समक्ष उसकी सम्यग् आलोचना करते समय मुनि शंकित होकर सोचता है कि मैंने अमुक घर में प्रचुर भिक्षा प्राप्त की है, अन्य मुनियों ने भी उसी घर से प्रचुर भिक्षा प्राप्त की है अतः यह दोषदुष्ट होनी चाहिए। यह सोचकर वह शंकित अवस्था में उस भिक्षा का उपभोग करता है। (यह चतुर्भंगी का तीसरा विकल्प है ।)
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१. उदाहरण स्वरूप यदि आधाकर्म दोष में शंका उत्पन्न हुई है तो उस आहार को ग्रहण करता हुआ और भोगता हुआ मुनि आधाकर्म दोष से सम्बद्ध होता है (मवृ प. १४७) ।
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