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अनुवाद
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२३२. संखडि-विवाह-भोज आदि करने पर पृथ्वी आदि जीव-निकायों की विराधना होती है। एक ओर अक्षतयोनित्व करने से काम की प्रवृत्ति होती है। (गर्भाधान से पुत्रोत्पत्ति होती है।) दूसरी ओर गर्भपात करने से प्रवचन की अवमानना होती है। क्षतयोनिकत्व करने से यावज्जीवन भोगान्तराय होता है। २३३. इस प्रकार उद्गम-उत्पादना के दोषों से विशुद्ध तथा ग्रहण-विशोधि से विशुद्ध गवेषित पिंड का ग्रहण होता है।
२३४. उत्पादना के दोष साधु से संबंधित जानने चाहिए। ग्रहणैषणा के दोष आत्मसमुत्थित तथा परसमुत्थित होते हैं, उनको मैं आगे कहूंगा। २३५. ग्रहणैषणा के दो दोष-शंकित तथा भावतः अपरिणत-ये दोष साधु-समुत्थित होते हैं। शेष आठ दोष नियमतः गृहस्थों से उत्पन्न जानने चाहिए। २३६. ग्रहणैषणा के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। द्रव्य ग्रहणैषणा में 'वानरयूथ' का दृष्टान्त है तथा भाव ग्रहणैषणा के दस प्रकार हैं। २३६/१. सड़े एवं पीले पत्तों वाले वनखंड को देखकर वानर यूथपति ने स्थान की खोज हेतु वानरयुगलों को अन्यत्र भेजा। यूथपति अपने यूथ के साथ वहां गया। २३६/२. यूथपति ने वनखंड का चारों ओर से स्वयं अवलोकन किया। घूमते हुए वह उस द्रह के पास पहुंचा। २३६/३. उसने द्रह में उतरते हुए श्वापदों के पदचिह्न देखे लेकिन उससे निकलते हुए पदचिह्न उसे दिखाई नहीं दिए। उसने यूथ को सावधान किया-'तुम लोग तट पर स्थित होकर नाले से पानी पीओ, यह द्रह निरुपद्रव नहीं है। (यह द्रव्य ग्रहणैषणा का उदाहरण है।) २३७. एषणा के दस दोष होते हैं
१. शंकित ६.दायक २. म्रक्षित ७. उन्मिश्र ३. निक्षिप्त ८. अपरिणत ४. पिहित ९. लिप्त
५. संहत १०. छर्दित। २३८. शंकित के चार विकल्प हैं
१. ग्रहण तथा भोजन – दोनों में शंकित। २. ग्रहण में शंकित - भोजन में नहीं।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ४७।
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