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अनुवाद
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२१९/११. उसने दोनों पुत्रियों को कहा- 'दान और स्नेह से इनको वश में करना है। एक दिन एकान्त में उन्होंने मुनि का मन आकृष्ट कर लिया। आषाढ़भूति गुरु के पास गया और सारी बात कहकर. मुनि लिंग-रजोहरण को छोड़ दिया। उसने नट-कन्याओं से विवाह कर लिया। (नट ने पुत्रियों से कहा-यह गुरु की सतत स्मृति करता रहता है अतः) यह उत्तम प्रकृति का है। २१९/१२. राजगृह में राजा द्वारा एक दिन बिना महिलाओं (नटनियों) के नाटक का आदेश हुआ। वे दोनों नटकन्याएं मदोन्मत्त होकर घर के ऊपरी मंजिल में जाकर सो गईं। २१९/१३. व्याघात उपस्थित होने के कारण नाटक नहीं हुआ। लौटने पर आषाढ़भूति दोनों पत्नियों को निर्वस्त्र और मदोन्मत्त देखकर विरक्त हो गया। उसे संबोधि प्राप्त हो गई। नट ने इंगित से जान लिया कि
आषाढ़भूति विरक्त हो गया है । आजीविका सम्यक् चले, उतना धन एकत्रित करने के लिए उसने राष्ट्रपाल नामक नाटक की रचना की। २१९/१४. नाटक में इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न भरत को आदर्शगृह में कैवल्य का आलोक प्राप्त हुआ, यह दृश्य दिखाया गया। लोगों ने हार आदि फेंके। उपहारों को ग्रहण कर नटकन्याओं को देकर आषाढ़भूति पुनः दीक्षा के लिए लौटने लगा। राजा ने बाधित करके रोकना चाहा लेकिन वह नहीं लौटा। २१९/१५. (वही नाटक कुसुमपुर नगर में खेला गया)। उसे देखकर ५०० क्षत्रिय प्रवजित हुए। (इस नाटक से यह पृथ्वी क्षत्रिय रहित हो जाएगी यह देखकर) उस नाटक को जला दिया गया। रोगी, दीर्घतपस्वी, अतिथि और स्थविर के लिए आपवादिक रूप से मायापिण्ड का ग्रहण भी विहित है। २२०. 'आज मैं अमुक द्रव्य (मोदक आदि) ही ग्रहण करूंगा'-इस बुद्धि के कारण वह सहज प्राप्त होने वाले अन्य द्रव्य को ग्रहण नहीं करता, यह लोभपिंड है। अथवा स्निग्ध पदार्थ को भद्रकरस युक्त जानकर उसको प्रचुर मात्रा में ग्रहण करना भी लोभपिंड है। २२०/१,२. चम्पा नगरी में मोदकोत्सव के अवसर पर मुनि ने संकल्प लिया कि मैं भिक्षा में सिंहकेशरक मोदक ग्रहण करूंगा। अन्य पदार्थों का वह प्रतिषेध करने लगा। धर्मलाभ के स्थान पर वह सिंहकेशरक कहने लगा। श्राद्ध के घर आधी रात्रि में उसने सिंहकेशरक का उच्चारण किया। श्रावक ने मोदकों से पात्र भर दिया। श्रावक ने पूछा-'पुरिमार्ध का काल आ गया क्या?' मुनि ने उपयोग लगाया। (आकाश में तारे देखकर) मुनि का मन शान्त हो गया। मुनि ने कहा-"तुमने मुझे समय पर सही प्रेरणा दी।" मुनि ने मोदकों का परिष्ठापन किया। प्रायश्चित्त करते हुए उसे केवलज्ञान हो गया। २२१. संस्तव के दो प्रकार हैं-संबंधिसंस्तव तथा वचनसंस्तव अथवा श्लाघा-संस्तव। प्रत्येक के दोदो भेद हैं-~-पूर्वसंस्तव तथा पश्चात्संस्तव।
१. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३८। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३९ ।
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