________________
१७६
पिंडनियुक्ति
मुनि ने गृहस्वामिनी को कहा-'मैं यह सेवई अवश्य प्राप्त करूंगा।' गृहस्वामिनी बोली-'यदि तुम सेवई प्राप्त करोगे तो मैं मानूंगी कि तुमने मेरी नासिकापुट में प्रस्रवण किया है।' २१९/४. 'यह किसका घर है?' यह पूछकर मुनि परिषद् के बीच गया। उसने पूछा-'अमुक व्यक्ति कौन है?' लोगों ने कहा-'उस व्यक्ति से तुम्हें क्या प्रयोजन है ? हमसे याचना करो, वह बहुत कंजूस है, तुम्हें कुछ भी नहीं देगा।' २१९/५. मुनि ने कहा-'यदि वह छह महिलाप्रधान पुरुषों में कोई नहीं होगा तो वह देगा। मैं परिषद् के मध्य उससे याचना करूंगा।' २१९/६. लोगों के पूछने पर मुनि ने छह अधम पुरुषों के नाम बताए-श्वेताङ्गुलि' २. बकोड्डायक' ३. किंकर ४. स्नायक' ५. गृध्रइवरिखी ६. हदज्ञ।" २१९/७. उस व्यक्ति ने कहा-'तुम मांगो मैं ऐसा व्यक्ति नहीं हूं।' मुनि ने कहा-'मैं पहले तुम्हारे घर गया था लेकिन तुम्हारी पत्नी ने निषेध कर दिया।' पति ने पत्नी को माले पर चढ़ने का आदेश देकर कहा-'तुम ऊपर से गुड़ उतारो, मैं ब्राह्मणों को भोजन कराऊंगा।' पत्नी निःश्रेणी से ऊपर चढ़ गई। २१९/८. गृहस्वामी ने निःश्रेणी वहां से हटा दी और मुनि को पर्याप्त सेवई का दान दिया। भार्या ने यह सब देख लिया। उसने उच्च स्वरों में कहा-'इसको मत दो, इसको मत दो।' मुनि ने नाक में अंगुलि डालकर उसको यह जता दिया कि मैंने तुम्हारे नाक में प्रस्रवण कर दिया है। ऐसा करने से पति-पत्नी के बीच प्रद्वेष पैदा होता है, कभी अपमान से आत्मघात भी हो सकता है तथा प्रवचन की अवहेलना होती है। २१९/९, १०. राजगृह नगरी में धर्मरुचि आचार्य का छोटा शिष्य मुनि आषाढ़भूति था। एक बार वह भिक्षार्थ राज-नट के घर में प्रविष्ट हुआ। वहां उसे भिक्षा में बहुमूल्य लड्डु प्राप्त हुआ। उसने सोचा यह आचार्य के लिए होगा, पुनः उसने काने मुनि का रूप बनाकर मोदक प्राप्त करके सोचा कि यह उपाध्याय को देना होगा। पुनः उसने कुब्ज मुनि का रूप बनाकर तीसरा मोदक प्राप्त किया और सोचा कि यह संघाटक-साधु को देना होगा। अंत में उसने कुष्ठी साधु का रूप बनाकर चौथा मोदक प्राप्त किया। नट ने रूप-परिवर्तन का दृश्य देखा। वह उसे प्रतिदिन निमंत्रित करके पर्याप्त मोदक का दान देने लगा।
१. टीकाकार ने इन छह नामों की व्याख्या संक्षिप्त कथानकों के माध्यम से की है। २. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३१ । ३. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३२। ४. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३३। ५. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३४। ६. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३५ । ७. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३६ । ८. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. ३७।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org