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पिंडनियुक्ति
२१०/२. यह लोक पूजाहार्य-पूजितपूजक है। जो व्यक्ति कृपण, दुःखी, अबन्धु, रोगग्रस्त तथा लूलेलंगड़े को अनाकांक्षा से दान देता है, वह दानपताका का हरण करता है अर्थात् दान की पताका को अपने हाथ में ले लेता है। (कृपण-भक्तों के सम्मुख ऐसा कहना कृपण आदि की वनीपकता है।) २१०/३. प्रायः लोग अपने उपकारी, परिचित तथा आश्रितों को दान देते हैं परन्तु जो व्यक्ति मार्ग खिन्न अतिथि को दान देता है, वही वास्तव में दान है। (अतिथि-भक्तों के सम्मुख ऐसा कहना अतिथि वनीपकत्व है।) २१०/४. गाय, बैल आदि को तृण आदि का आहार सुलभ होता है परन्तु छिच्छिक्कार से तिरस्कृत कुत्तों को आहार-प्राप्ति सुलभ नहीं होती। २१०/५. ये श्वान कैलाश पर्वत के देव विशेष हैं। पृथ्वी पर ये यक्षरूप में विचरण करते हैं। इनकी पूजा हितकारी और अपूजा अहितकारी होती है। (श्वान-भक्तों के समक्ष ऐसा कहना श्वान वनीपकत्व है।) २११. इस मुनि ने मेरा भाव जान लिया है कि लोक में ब्राह्मण आदि प्रणामार्ह हैं। उपर्युक्त प्रत्येक विषय के वनीपकत्व में भद्रक और प्रान्त आदि दोष होते हैं। (यदि व्यक्ति भद्रक होता है तो वह प्रशंसावचन सुनकर मुनि को आधाकर्म से प्रतिलाभित करता है और यदि वह प्रान्त होता है तो मुनि को घर से बाहर निकाल देता है।) २१२. इसी प्रकार श्वान के ग्रहण से 'काक' आदि भी गृहीत हो जाते हैं। जो जहां (काक आदि की पूजा में) प्रसक्त होता है, वह वहां पूछे जाने पर या बिना पूछे ही उसकी प्रशंसा के द्वारा स्वयं को उसके भक्त रूप में प्रस्तुत करता है। २१३. 'पात्र या अपात्र को दिया हुआ दान व्यर्थ नहीं होता'-ऐसा कहना भी दोषयुक्त है तो भला अपात्रदान की प्रशंसा करना महान् दोषप्रद है। २१४. गृहस्थ के द्वारा पूछने पर साधु के द्वारा तीन प्रकार की चिकित्सा होती है
• मैं वैद्य नहीं हूं। (इस वाक्य से वह समझ जाता है कि उसे वैद्य के पास जाना चाहिए।) • स्वयं के रोगोपशान्ति की क्रिया कहता है।
• अथवा वैद्य बनकर स्वयं चिकित्सा करता है। २१४/१. भिक्षार्थ जाने पर रोगी मुनि से रोग-निवारण के लिए पूछता है। मुनि कहता है-'क्या मैं वैद्य हूं?' इस अर्थापत्ति से जानकर रोगी को यह बोध हो जाता है कि उसे वैद्य के पास जाना चाहिए। यह चिकित्सा का प्रथम प्रकार है। २१४/२. रोगी के पूछने पर मुनि कहता है- 'मैं भी इस दुःख अथवा रोग से ग्रस्त था। अमुक औषधि से मैं रोगमुक्त हो गया। हम मुनि सहसा समुत्पन्न रोग का निवारण तेले आदि की तपस्या से करते हैं। यह दूसरे प्रकार की चिकित्सा है।
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