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अनुवाद
प्रयोग तथा दंड आदि क्रिया को देखकर गृहस्थ के पुत्र की प्रशंसा करना अथवा जानना कि यह मल्ल है, यह गण के आधार पर उपजीवना है।
२०७/४. कर्म अथवा शिल्प विषयक कर्ता के प्रयोजन के निमित्त एकत्रित अनेक वस्तुओं को देखकर यह सम्यग् है अथवा असम्यग्, ऐसा अपने कौशल से जताना अथवा स्पष्ट रूप से कहना कर्म और शिल्प की उपजीवना है।
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२०८. वनीपक के पांच प्रकार हैं – श्रमण, माहण, कृपण, अतिथि तथा श्वान। 'वनु याचने' धातु से यह शब्द बना है । स्वयं को श्रमण आदि का भक्त बतलाकर याचना करने वाला वनीपक होता है।
२०८/१. जिसकी मां मर गई हो ऐसे बछड़े के लिए ग्वाला अन्य गाय की खोज करता है, वैसे ही आहार आदि के लोभ से जो श्रमण, माहण, कृपण, अतिथि अथवा श्वान के भक्तों के सामने स्वयं को उनका भक्त दिखाकर याचना करता है, वह वनीपक है।
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२०९. श्रमण के पांच प्रकार हैं-निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक तथा आजीवक। भोजन देते समय कोई मुनि आहार आदि के लोभ से स्वयं को शाक्य आदि का भक्त बताता है, यह उसकी वनीपकता है ।
२०९/१. ये शाक्य भिक्षु भित्ति चित्र की भांति अनासक्त रूप से भोजन करते हैं। ये परम कारुणिक एवं दानरुचि हैं। कामगर्दभ-मैथुन में अत्यंत आसक्त इन ब्राह्मणों को दिया हुआ भी नष्ट नहीं होता तो भला शाक्य आदि भिक्षुओं को दिया हुआ व्यर्थ कैसे होगा ?
२१०. शाक्य आदि की प्रशंसा से मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है, उद्गम आदि दोषों का समाचरण होता है, जिससे आहार की आसक्ति से उनके गच्छ में समाविष्ट होने की संभावना रहती है। लोगों में वह अवर्णवाद होता है कि ये साधु चाटुकारी हैं, इन्होंने कभी दान नहीं दिया है अथवा शाक्य आदि के भक्त यदि द्वेषी हैं तो यह कह देते हैं कि यहां फिर मत आना ।
२१०/१. (मुनि ब्राह्मण-भक्तों के समक्ष ब्राह्मणों की प्रशंसा रूप वनीपकत्व करते हुए कहता है - ) लोकोपकारी भूमिदेव - ब्राह्मणों को दिया हुआ दान बहुत फलदायी होता है। ब्राह्मण बंधु- अर्थात् जातिमात्र ब्राह्मण को दिया गया दान भी बहुत फल वाला होता है तो भला षट्कर्म में निरत ब्राह्मण को दान देने से होने वाले फल की तो बात ही क्या है ?
१. मवृ प. १३०; दण्डादिका धरणिपातच्छुप्ताङ्कयुद्धप्रभृतयः - धरती पर गिराकर सोए हुए मल्ल की छाती पर बैठकर युद्ध आदि करना दण्ड कहलाता है।
२. द्र. ठाणं ५/२०० ।
३. मनुस्मृति (१०/७५) में ब्राह्मणों के योग्य षट्कर्म ये हैं
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहश्चैव षट्कर्माण्यग्रजन्मनः ॥
ब्राह्मण की आजीविका से संबंधित षट्कर्म इस प्रकार हैं
उञ्छं प्रतिग्रहो भिक्षा, वाणिज्यं पशुपालनम् । कृषिकर्म तथा चेति, षट्कर्माण्यग्रजन्मनः ॥
योग से संबंधित षट्कर्म इस प्रकार हैं- १. धौति २. वस्ति ३ नेती ४. नौली ५ त्राटक ६. कपालभाति ।
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