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पिंडनियुक्ति
२२२. माता-पिता आदि का संस्तव पूर्वसंस्तव है तथा श्वसुर-सास आदि का संस्तव पश्चात्संस्तव है। साधु गृहस्थों के साथ पूर्व अथवा पश्चात्संस्तव करता है। २२२/१. भिक्षार्थ गया हुआ मुनि अपनी वय तथा गृहिणी की वय जानकर तदनुरूप संबंध स्थापित करते हुए कहता है कि मेरी माता ऐसी ही थी अथवा मेरी बहिन, बेटी या पौत्री भी ऐसी ही थी। २२२/२. भिक्षार्थ प्रविष्ट मुनि स्त्री को देखकर अधृतिपूर्वक अश्रुविमोचन करते हुए कहता है-'मेरी माता तुम्हारे जैसी थी।' वह स्त्री मुनि के मुख में स्तन प्रक्षेप करती है, जिससे दोनों के मध्य स्नेह-सम्बन्ध हो जाता है। वह अपनी विधवा पुत्रवधू का दान भी कर सकती है। २२३. पश्चात्संस्तव के दोष ये हैं-सास अपनी विधवा पुत्री का दान कर सकती है। मेरी भार्या ऐसी ही थी' ऐसा कहने पर पति मुनि का सद्य: घात कर सकता है अथवा स्त्री द्वारा भार्यावत् आचरण करने पर (चित्त-विक्षोभ से) मुनि का व्रतभंग भी हो सकता है। २२४. गृहिणी यह सोच सकती है कि यह मुनि मायावी है, चापलूस है, जननी, भार्या आदि कहकर हमारा तिरस्कार कर रहा है। ऐसा सोचकर प्रान्त बुद्धि से वह मुनि को घर से बाहर निकाल सकती है। यदि घर वाले भद्रक होते हैं तो वे साधु से प्रतिबद्ध हो जाते हैं। २२५. दाता द्वारा भक्तपान देने से पहले ही जो मुनि उसके सद्-असद् गुणों की प्रशंसा करता है, वह वचन संबंधी पूर्वसंस्तव होता है। २२५/१. मुनि कहता है-"यह वह है, जिसके गुण दसों दिशाओं में निर्बन्ध घूमते हैं। इतने दिन तुम्हारे बारे में हम ऐसा सुनते थे, आज प्रत्यक्ष तुमको देखा है।" २२६. दाता द्वारा भक्तपान देने पर मुनि उसके सद्-असद् गुणों की प्रशंसा करता है, वह पश्चात्संस्तव कहलाता है। २२६/१. तुम्हारे गुण यथार्थ रूप में सर्वत्र प्रचलित हैं। तुम्हें देखकर मेरे चक्षु विमल हो गए। पहले मुझे तुम्हारे गुणों के बारे में शंका थी, अब तुम्हें देखकर मेरा मन निःशंक हो गया है। २२७. विद्या और मंत्र की प्ररूपणा में विद्या के विषय में भिक्षु-उपासक का तथा मंत्र के विषय में मुरुंड राजा की शिरोवेदना का दृष्टान्त है। २२७/१,२. साधु एकत्रित होकर संलाप करने लगे-'भिक्षु-उपासक अत्यन्त प्रान्त है, कंजूस है। वह साधु को कुछ नहीं देता।' (एक साधु बोला)-'यदि आप लोगों की इच्छा हो तो मैं उससे घृत, गुड़
और वस्त्र आदि दिलवा सकता हूं।' वह मुनि वहां गया और घर को विद्या और मंत्र से अभिमंत्रित कर दिया। उसने साधु से पूछा-'आपको क्या दूं?' साधु ने कहा-'घृत, गुड़ तथा वस्त्र आदि।' दान देने पर मुनि ने विद्या का प्रतिसंहरण कर लिया। स्वभावस्थ होने पर भिक्षु-उपासक ने पूछा-'किसने मेरी
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