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पिंडनियुक्ति
१६३/१. कुतुप आदि का मुख ढ़कने हेतु कभी मिट्टी का ढेला, पाषाणखंड आदि रखकर सचित्त गीली मिट्टी को चारों ओर लगा दिया जाता है। उसमें पृथ्वीकायिक मिट्टी चिरकाल तक सचित्त रहती है लेकिन पानी कुछ समय बाद अचित्त हो जाता है। १६३/२. पूर्वलिप्त को साधु के लिए उद्भिन्न करने पर जो दोष हैं, वे ही दोष साधु को दान देकर पुनः लेप करने में हैं क्योंकि स्थगन हेतु उसमें पुनः सचित्त पृथ्वी को जल से आई करके लेप किया जाता है तथा कोई-कोई लाख को तपाकर भी कुतुप के मुख पर लगा देता है। १६३/३. जैसे पूर्व लेप करने पर पृथ्वीकाय आदि जीवों की विराधना होती है, वैसे ही साधु के निमित्त उस पिधान को खोलकर पुन: लेप करने पर भी पृथ्वी आदि स्थावरकाय की विराधना होती है तथा पृथ्वी आदि के आश्रित रहने वाले पिपीलिका, कुंथु आदि त्रसकाय के प्राणियों की भी विराधना होती है। १६३/४. साधु के निमित्त कुतुप आदि का मुख उद्भिन्न करने पर गृहस्वामी याचक को अथवा पुत्र आदि को तैल, लवण, घी और गुड़ आदि देता है। उद्घाटित करने पर वह अवश्य विक्रय करता है और दूसरे उसे खरीदते हैं। १६३/५. दान, क्रय या विक्रय में अयतना रहने से अधिकरण–पापकारी प्रवृत्ति भी संभव है तथा मुख उद्घाटित करने से वहां चींटी, मूषक आदि जीव भी गिर सकते हैं। १६३/६. जिस प्रकार पूर्वलिप्त कुंभ आदि को उद्भिन्न करने पर पृथ्वीकाय आदि षट्काय जीवों की विराधना होती है, वैसे ही लिंपन आदि करने पर भी दोष उत्पन्न होते हैं (द्र. गा. १६३) । इसी प्रकार साधु के निमित्त बंद कपाट को खोलने में भी यही दोष समझने चाहिए। १६३/७. कपाट खोलने से छिपकली आदि की विराधना होती है। आवर्तन-पीठिका के ऊंचे-नीचे होने से कुंथु आदि जीवों की विराधना संभव है। कपाट के पीछे जाने पर अंदर स्थित बालक आदि को चोट लगने की संभावना रहती है। १६४. कुंचिकारहित कपाट जो प्रतिदिन खुलता है, बंद होता है, उसको उद्घाटित करके मुनि आहार
१. लाख तपाकर लगाने से तेजस्काय की विराधना भी होती है क्योंकि जहां अग्नि होती है, वहां वायुकाय की विराधना भी
होती है अतः पिहित को उद्भिन्न करने में षट्काय की विराधना होती है (मवृ प. १०६)। २. टीकाकार कपाट के उद्घाटन के संबंध में व्याख्या करते हुए कहते हैं कि वहां जल से भरा मटका आदि रखा हो तो उसके
भेदन होने पर पार्श्व स्थित चूल्हे पर भी वह पानी प्रवेश कर सकता है, जिससे अग्निकाय की विराधना संभव है। अग्निकाय की विराधना होने पर वायु की विराधना अवश्यंभावी है। चींटी आदि के बिल में पानी प्रवेश करने से त्रसकाय की विराधना भी संभव है। दान, क्रय-विक्रय तथा अधिकरण आदि प्रवृत्ति भी गाथा १६३ के समान जाननी चाहिए (मवृ प. १०७)। ३. टीकाकार 'अकुंचियाग' शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि कुंचिकाविवर से रहित कपाट का पृष्ठभाग ऊंचा नहीं होता अतः घर्षण न होने से सत्त्वों की विराधना नहीं होती। टीकाकार मलयगिरि इसके स्थान पर 'अकूइयाग' पाठान्तर की व्याख्या करते हए कहते हैं कि जिस कपाट को खोलने से केंकार की आवाज नहीं होती, वह अकृजिकाक-कृजिका रहित कहलाता है (मवृ प. १०७)।
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