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पिंडनियुक्ति
१५६/१. निम्न कारणों को प्रकट करके कोई श्राविका अपने घर से साधु के उपाश्रय में आहार लाए तो यह नोनिशीथस्वग्राम अभ्याहृत कहलाता है
• जब मुनि भिक्षा के लिए गए, तब घर में कोई नहीं था। • अथवा उस समय भिक्षा-काल नहीं था। • अथवा विशिष्ट व्यक्तियों के लिए भोजन बनाया गया था इसलिए उनके आने से पूर्व भिक्षा
नहीं दी गई। • अथवा भिक्षार्थ आए साधु के चले जाने पर प्रहेणक-त्यौंहार की मिठाई आई।
• अथवा जब मुनि भिक्षार्थ आए, तब गृहस्वामिनी सो रही थी। १५७. जो क्रम स्वग्राम-परग्राम विषयक नोनिशीथ अभ्याहृत के लिए कहा गया है, वही क्रम निशीथ अभ्याहत के लिए जानना चाहिए। जहां दायक का भाव अविदित होता है, उसे निशीथ अभ्याहृत जानना चाहिए। १५७/१-४. कुछ मुनि अधिक दूरी पर थे तथा कुछ नदी के पार थे। (श्रावक के यहां विवाह के प्रचुर मोदक बच गए।) श्रावक ने सोचा कि यहां मुनि आधाकर्म की आशंका से मोदक ग्रहण नहीं करेंगे अतः कुछ श्रावक प्रच्छन्न रूप से मोदक लेकर (नदी के पार वाले गांव में) चले गए। वहां वे देवकुल में रुके और द्विज आदि को थोड़ा-थोड़ा दान देने लगे। उन्होंने उच्चार आदि के लिए निर्गत साधुओं को दान दिया। उन साधुओं के कहने पर शेष साधु भी वहां भिक्षार्थ गए। (साधुओं को आशंका न हो अत: मायापूर्वक कोई श्रावक बोला-) 'इनको पूरा मत देना, आवश्यकता हो उतना ही देना।' दूसरा बोला-'साधुओं को सारा दे दो, पीछे थोड़ा ही चाहिए।' नमस्कारसहिता (नवकारसी) वाले साधु खा चुके थे। अजीर्ण आदि के कारण जिन्होंने पुरिमार्ध (दो पौरुषी) की थी, उन्होंने भोजन नहीं किया। दान देने के पश्चात् श्रावक वहां वंदना करने आए। उन्होंने नैषेधिकी आदि सारी क्रियाएं कीं। (साधुओं को ज्ञात हो गया कि यह हमारे लिए लाया गया आहार है।) उस समय जिन पुरिमार्ध वाले मुनियों ने आहार नहीं किया था, उन्होंने वह भोजन नहीं किया, जिन्होंने कवल उठा लिया, उन्होंने कवल वापस पात्र में रख दिया। जिन्होंने मुख में कवल डाल दिया, उन्होंने ज्ञात होते ही पार्श्वस्थित मल्लक-पात्र में थूक दिया। भाजनगत सारा आहार परिष्ठापित किया गया। सारे श्रावक साधुओं से क्षमा मांगकर लौट गए। जिन्होंने पहले भोजन कर लिया अथवा आधा भोजन किया, वे अशठभाव के कारण शुद्ध हैं।' १५७/५. (कोई गृहिणी अभ्याहत की आशंका-निवृत्ति के लिए प्रहेणक लेकर किसी अन्य गृहिणी के घर की ओर जाती है। वहां से लौटते समय मुनियों को दान देने की भावना से उपाश्रय में जाकर कहती है)-'भगवन् ! अमुक घर में जाते समय मुझे यह प्रहेणक प्राप्त हुआ अथवा यह मुझे अमुक जीमनवार में
१. १५७/१-४ इन चार गाथाओं में घटना विशेष के माध्यम से ग्रंथकार ने परग्राम अभ्याहृत निशीथ को स्पष्ट किया है, कथा
के विस्तार हेतु देखें परि. ३, कथा सं. २१ ।
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